कुछ शेर १


कहाँ से आ गयी दुनिया कहाँ, मगर देखो,
कहाँ-कहाँ से अभी कारवाँ गुज़रता है

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हमसे क्या हो सका मुहब्बत में,
खैर तुमने तो बेवफ़ाई की

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अब दौरे-आस्माँ है न दौरे –हयात है,
ऐ दर्दे-हिज्र तू ही बता कितनी रात है

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छिड़ते ही ग़ज़ल बढ़ते चले रात के साये,
आवाज़ मेरी गेसू-ए-शब खोल रही है

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किसको रोता है उम्रभर कोई,
आदमी जल्द भूल जाता है

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जिनकी तामीर इश्क़ करता है,
कौन रहता है उन मकानों में

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इस दश्ते-बेकसी में 
सरे-शाम तुम कहाँ


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अब कर के फरामोश तो नाशाद करोगे
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे

- फिराक गोरखपुरी 


बेखुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इन्तिज़ार है अपना

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देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुंआ कहाँ से उठता है

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हम हुए तुम हुए कि मीर हुए
उस की जुल्फों के सब आसीर हुए

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जब कि पहलू से यार उठता है
दर्द बे-ईख्तियार उठता है

- मीर


ज़िंदगी पर इससे बढ़कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़'
उसका ये कहना कि तू शायर है दीवाना नहीं

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कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी, जान से जाते जाते

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रातें हैं उदास, दिन कड़े हैं
ऐ दिल! तेरे हौंसले बड़े हैं

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अभी तलक तो कुन्दन हुए, न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

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आँखों में छुपाये अश्कों को होंठों में वफ़ा के बोल लिये
इस जश्न में भी शामिल हूँ नौहों से भरा कश्कोल लिये

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दिल के रिश्तों कि नज़ाक़त वो क्या जाने 'फ़राज़'
नर्म लफ़्ज़ों से भी लग जाती हैं चोटें अक्सर

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चढते सूरज के पूजारी तो लाखों हैं 'फ़राज़',
डूबते वक़्त हमने सूरज को भी तन्हा देखा

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उस शख़्स को बिछड़ने का सलीका भी नहीं,
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया 

- अहमद फ़राज़ 

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