आँख उठी मोहब्बत ने अंगडाई ली - नुसरत फ़तेह अली खान



शायर : फ़ना बुलंद शहरी 


आँख उठी मोहब्बत ने अंगडाई ली
दिल का सौदा हुआ चाँदनी रात में
उनकी नज़रों ने कुछ ऐसा जादू किया
लुट गए हम तो पहली मुलाकात में

दिल लूट लिया ईमान लूट लिया
खुद तड़प कर उन के जानिब दिल गया
शराब सीक पर डाली, कबाब शीशे में
हम पे ऐसा जादू किया उनकी नज़रों ने...

ज़िन्दगी डूब गयी उनकी हसीं आंखों में
यूँ मेरे प्यार के अफ़साने को अंजाम मिला
कैफियत-ए-चश्म उनकी मुझे याद है सौदा
सागर को मेरा हाथ से लेना के चला मैं

हम होश भी अपना भूल गए
ईमान भी अपना भूल गए
इक दिल ही नहीं उस बज़्म में
हम न जाने क्या क्या भूल गए

जो बात थी उनको कहने की
वो बात ही कहना भूल गए
गैरों के फ़साने याद रहे
हम अपना फ़साना भूल गए

वो आ के आज सामने इस शान से गए
हम देखते ही देखते ईमान से गए
क्या क्या निगाह-ए-यार में तासीर हो गयी
बिजली कभी बनी कभी शमशीर हो गयी

बिगड़ी तो आ बनी दिल-ए-इश्क के जान पर
दिल में उतर गयी तो नज़र तीर हो गयी
महफ़िल में बार बार उन पर नज़र गयी
हमने बचाई लाख मगर फिर उधर गयी

उनकी निगाह में कोई जादू ज़रूर
जिस पर पड़ी उसी के जिगर में उतर गयी
वो मुस्करा कर देखना उनकी तो  थी अदा
हम बेतरह तड़प उठे और जान से गए

आते ही उनके बज़्म में कुछ इस तरह से हुआ
शीशे से रिन्द, शेख भी कुरान से गए
उनकी आँखों का लिए दिल पर असर जाते हैं
मैकदे हाथ बढ़ाते हैं जिधर जाते हैं

भूलते ही नहीं दिल को मेरे मस्ताना निगाह
साथ जाता है ये मैखाना जिधर जाते हैं
उनके अंदाज़ ने मुझको बाखुदा लुट लिया
दे के मजबूर को पैगाम ए वफ़ा लूट लिया

सामना होते ही जो कुछ मिला लूट लिया
क्या बताऊँ कि नजर मिलते ही क्या लुट लिया
नरगसी आँखों ने ईमान मेरा लूट लिया

बन के तस्वीर-ए-गम रह गए हैं
खोये खोये से हम रह गए हैं
बाँट ली सबने आपस में खुशियाँ
मेरे हिस्से में गम रह गए हैं

अब न उठाना सरहाने से मेरे
अब तो गिनती के दम रह गए हैं
दिन कटा जिस तरह कटा
लेकिन रात कटती नज़र नहीं आती

दिल ज़िन्दगी से तंग है, जीने से सेर है
पैमाना भर चूका है छलकने की देर है
काफिला चल के मंजिल पे पहुँचा
ठहरो ठहरो में हम रह गए

देख कर उनके मंगतो की गैरत
दंग अहले-करम रह गए हैं
उन की सत्तारियाँ कुछ न पूछो
आसियों के भ्ररम रह गए हैं

ऐ सबा एक ज़हमत ज़रा फिर
उनकी जुल्फों में हम रह गए हैं
कायनाते जफ़ाओं वफाओं में
एक हम एक तुम रह गए हैं

आज साकी पिला शेख़ को भी
एक ये मोहतरम रह गए हैं
दौर-ए-माजी के तस्वीर आखिर
ऐ नसीब एक हम रह गए हैं

नज़र मिलकर मेरे पास आ के लूट लिया, लूट लिया
खुदा के लिए अपनी नज़रों को रोको, मेरे दिल लूट लिया
जिस तरफ उठ गयी हैं आहें हैं
चश्म ए बद्दूर क्या निगाहें हैं

दिल को उलट पुलट के दिखाने से फायदा
कह तो दिया के बस लूट लिया लूट लिया
है दोस्ती तो जानिब-ए-दुश्मन न देखना
जादू भरा हुआ है तुम्हारी निगाह में

करूँ तारीफ़ क्या तेरी नज़र के दिल लूट लिया
नज़र मिलाकर मेरे पास आ के लूट लिया
नज़र हटी  थी के फिर मुस्कुरा कर लूट लिया
कोई ये लूट तो देखो के उसने जब चाहा
मुझ ही में रह कर मुझमें समा कर लूट लिया

ना लुटते हम अगर उन मस्त अंखियों ने जिगर
नज़र बचाते हुए डूब डूबा के लूट लिया

साथ अपना वफा में छूटे कभी
प्यार की डोर बन कर न टूटे कभी
छुट जाए ज़माना कोई गम नहीं
हाथ तेरा रहे बस मेरे हाथ में

रुत है बरसात की, देखो जिद मत करो
ये सुलगती शाम ये तन्हाईयाँ
बादलों के साथ हम भी रो दिए
जहाँ आँखें बरसती रहती हों बरसात से पहले
वहाँ बरसात में बादल बरस जाने से क्या होगा

ये भीगी रात और बरसात की हवाएं
जितना भुला रहा उतना याद आ रहे हैं
ये बादल झूम कर आये तो हैं शीन-ए-गुलिस्तान पर
कहीं पानी न पर जाए किसी के अहद-ओ-पैमां पर

लोग बरसात में सो जाते हैं खुश खुश लेकिन
मुझको इन आँखों की बरसात ने सोने न दिया
रुत है बरसात की देखो जिद न करो
रात अँधेरी है बादल हैं छाये हुए

रुक भी जाओ सनम तुम को मेरी कसम
अब कहाँ जाओगे ऐसी बरसात में
जिस तरह चाहे वो आजमा ले हमें
मुन्तजिर हैं बस उनके इशारे पे हम


मुस्कुरा कर 'फ़ना' वो तलब तो करें
जान भी अपनी दे देंगे सौगात में
आँख उठी मोहब्बत ने अंगडाई ली
दिल का सौदा हुआ चाँदनी रात में

महताब(1991) - गुलाम अली



गुलाम अली के एल्बम महताब के सारे ग़ज़ल. संगीत गुलाम अली का ही है. और शायर का नाम हर ग़ज़ल के पहले लिखा हुआ है.


हबीब जमाल 

आवारगी बरंग-ए-तमाशा बुरी नहीं
ज़ौक़-ए-नज़र मिले तो ये दुनिया बुरी नहीं

कहते हैं तेरी ज़ुल्फ़-ए-परीशाँ को ज़िंदगी
ऐ दोस्त ज़िंदगी की तमन्ना बुरी नहीं

है नाख़ुदा का मेरी तबाही से वास्ता
मैं जानता हूँ नीयत-ए-दरिया बुरी नहीं

इस रहज़न-ए-हयात ज़माने से दूर चल
मर भी गये तो चादर-ए-सहरा बुरी नहीं

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जान-ए-दिल जान-ए-तमन्ना कौन है
तुमसे अच्छा तुमसे प्यारा कौन है

हम तुम्हारे तुम किसी के हो गये
हम नहीं समझे हमारा कौन है

बंदा-परवर आप ही फ़रमाइये
हम बुरे ठहरे तो अच्छा कौन है

इस तमाशा-गाह-ए-आलम में 'जमाल'
फ़ैसला कीजे तमाशा कौन है

देखना दिल की सदाएं तो नहीं
इस ख़मोशी में ये गोया कौन है



कभी तो महरबाँ हो कर बुला लें
ये महवश हम फ़रिक़ों की दुआ लें

न जाने फिर ये रुत आये न आये
जवाँ फूलों की कुछ ख़ुश्बू चुरा लें

हमारी भी सम्भल जायेगी हालत
वो पहले अपनी ज़ुल्फ़ें तो सम्भालें

निकलने को है वो महताब घर से
सितारों से कहो नज़रें झुका लें

ज़माना तो यूँही रूठा रहेगा
चलो 'जालिब' उन्हें चल कर मना लें



मोहसिन नकवी 

ख़ाब बिखरे हैं सुहाने क्या क्या
लुट गये अपने ख़ज़ाने क्या क्या

मुड़ के देखा ही था माज़ी की तरफ़
आ मिले यार पुराने क्या क्या

आज देखी है जो तस्वीर तेरी
याद आया है न जाने क्या क्या

सिर्फ़ इक तर्क-ए-तअल्लुक़ के लिये
तूने ढूँढे हैं बहाने क्या क्या

रात सहरा की रिदा पर 'मोहसिन'
हर्फ़ लिक्खे थे हवा ने क्या क्या



शाम के वक़्त जाम याद आया
कितना दिलचस्प काम याद आया

जब भी देखा कोई हसीं चेहरा
मुझको तेरा सलाम याद आया

सुनके क़िस्से ख़ुदा की अज़्मत के
आदमी का मक़ाम याद आया

बंसरी की नवा को तेज़ करो
आज राधा को श्याम याद आया

सहन\-ए\-मस्जिद में भी हमें 'मोहसिन'
मयकदे का क़याम याद आया


अहमद नदीम कासमी 

मुझसे क़ाफ़िर को तेरे इश्क़ ने यूँ शरमाया
दिल तुझे देख के धड़का तो ख़ुदा याद आया

चारागर आज सितारों की क़सम खा के बता
किसने इन्साँ को तबसूम के लिये तरसाया

नज़्र करता रहा मैं फूल से जज़्बात उसे
जिसने पत्थर के खिलौनों से मुझे बहलाया

उसके अन्दर कोई फ़नकार छुपा बैठा है
जानते बूझते जिस शख़्स ने धोखा खाया



परवीन शाकिर 

नज़र के सामने इक रास्ता ज़रूरी है
भटकते रहने का भी सिलसिला ज़रूरी है

मिसाल-ए-अब्र-ओ-हवा दिल-ब-हम रहें लेकिन
मुहब्बतों में ज़रा फ़ासला ज़रूरी है

वो ख़ौफ़ है क्र सर-ए-शाम घर से चलते वक़्त
गली का दूर तलक जायज़ा ज़रूरी है

तअल्लुक़ात के नाम-ओ-तिबर हवालों से
तमाम उम्र का इक राविता ज़रूरी है


कतील शिफाई 

उदास शाम किसी ख़ाब में ढली तो है
यही बहुत है के ताज़ा हवा चली तो है

जो अपनी शाख़ से बाहर अभी नहीं आई
नई बहार की ज़ामिन वही कली तो है

धुवाँ तो झूठ नहीं बोलता कभी यारो
हमारे शहर में बस्ती कोई जली तो है

किसी के इश्क़ में हम जान से गये लेकिन
हमारे नाम से रस्म-ए-वफ़ा चली तो है

हज़ार बन्द हों दैर-ओ-हरम के दरवाज़े
मेरे लिये मेरे महबूब की गली तो है



अहमद फ़राज़ 

ये क्या के सबसे बयाँ दिल की हालतें करनी
'फ़राज़' तुझको न आईं मोहब्बतें करनी

ये कुर्ब क्या है के तू सामने था और हमें
शुमारगी से जुदाई से साअतें करनी

कोई ख़ुदा हो के पत्थर जिसे भी हम चाहें
तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी

सब अपने अपने करीने से मुन्तज़िर उसके
किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी

मिले जब उनसे तो मुबहम सी गुफ़्तगू करना
फिर अपने आप से सौ सौ वज़ाहत करनी


तुम एक गोरखधंधा हो - नुसरत फ़तेह अली खान



शायर : नाज़ खिअलावी 

गायक : नुसरत फ़तेह अली खान


हो भी नहीं और हर जहाँ हो
तुम एक गोरखधंधा हो
हर जर्रे में किस शान से तू जलवानुमा है
हैरान है अक्ल की, तू कैसा है और क्या है
तुझे गेरो हरम में मैंने ढूँढा तू नहीं मिलता
मगर तशरीफ़ फरमा, तुझको अपने दिल में देखा है
तुम एक गोरखधंधा हो

हरमो गैर में है जलवा ए पुर्फन तेरा
दो घरो का है चराग, एक रूखे रोशन तेरा
जब बाजुस तेरे दूसरा कोई मोजूद नहीं
फिर समझ में नहीं आता तेरा पर्दा करना
तुम एक गोरखधंधा हो

जो उल्फत में तुम्हारी खो गया है
उसी खोये हुए को कुछ मिला है
न बुतखाने न काबे में मिला है
मगर टूटे हुए दिल में मिला है
अदम बन कर कही छुप गया है
कहीं तू हस्त बन के आ गया है
नहीं है तू तो फिर इंकार कैसा
नाफीबी तेरे होने का पता है
जिसको कह रहा हूँ अपनी हस्ती
अगर वो तू नहीं तो और क्या है
नहीं आया ख्यालो में अगर तू
तो फिर मैं कैसे समझा तू खुदा है
तुम एक गोरखधंधा हो

हैरान हूँ इस बात पे तुम कौन हो क्या हो
हाथ आओ तो बुत हाथ ना आओ तो खुदा हो
अक्ल में जो गिर गया न इन्तहा क्यों कर हुआ
जो समझ में आ गया फिर वो क्यों कर खुदा हुआ
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर खुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
मिलते नहीं हो, सामने आते नहीं हो तुम
जलवा दिखा के, जलवा दिखाते नहीं हो तुम
गैरो हरम के झगडे मिटाते नहीं हो, तुम
जो असल बात है वो बताते नहीं हो, तुम
हैरान हूँ मेरे दिल में समाये हो किस तरह
हालाँकि दो जहाँ में समाते नहीं हो, तुम
ये महा बदो हरम ये खलिसा ओ देर क्यों
हरजाई हो, तभी तो बताते नहीं हो तुम
तुम एक गोरखधंधा हो

दिल पे हैरत ने अजब रंग जमा रखा है
एक उलझी हुई तस्वीर बना रखा है
कुछ समझ में नहीं आता की, ये चक्कर क्या है
खेल तुमने क्या अजल से ये रचा रखा है
रूह को जिस्म के पिंजरे का बना के कैदी
उसपे फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है
देके तदबीर के पंछी को उड़ाने तुमने
नामे तकदीर भी हर शब्द बिछा रखा है
करके आरैसे दो नयन के बरसो तुमने
ख़त्म करने का भी मंसूबा बना रखा है
ला मकानी का बहरहाल है दावा है तुम्हे
नह्लो अकरब का भी पैगाम सुना रखा है
ये बुरे वो भलाई ये जहन्नम वो बहिस्त
इस उलट फेर में फरमाओ तो क्या रखा है
जुर्म आदम ने किया और सजा बेटो को
बदले ओ इन्साफ का मियार भी क्या रखा है
देके इंसान को दुनिया में खलाफत अपनी
एक तमाशा सा ज़माने में बना रखा है
अपनी पहचान की खातिर बनाया सबको
सबकी नज़रों से मगर खुद को छुपा रखा है
तुम एक गोरखधंधा हो

नित नए नक्श बना देते हो, मिटा देते हो
जाने किस जुर्म ए तमन्ना की सजा देते हो
कभी कंकड़ को बना देते हो हीरे की कली
कभी हीरो को भी मिट्टी में मिला देते हो
जिंदगी कितने ही मुर्दों को अत्ता की जिसने
वो मसीहा ही सलीबो पे सजा देते हो
खवाहिशे दीद कर बैठे सरे तुर कोई
खुद ही बर्के तजली से जला देते हो
नारे नमरूद में जलवाते हो खुद अपना खलील
खुद ही फिर नार को गुलज़ार बना देते हो
तुम एक गोरखधंधा हो

ए माइलस्टोन - A Milestone (Jagjit Singh, Chitra Singh)

संगीत : जगजीत सिंह 
गायक : जगजीत सिंह, चित्रा सिंह 
ग़ज़ल : कतील शिफाई 



मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम,
एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम,

आंसू छलक छलक के सतायेंगे रात भर,
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम,

जब दूरियों की याद दिलों को जलायेगी,
जिस्मों को चांदनी में भिगोया करेंगे हम,

गर दे गया दगा हमें तूफ़ान भी ‘क़तील’,
साहिल पे कश्तियों को डुबोया करेंगे हम,




तेरे खुशबु मे बसे ख़त मैं जलाता कैसे,
जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाये रखा,
जिनको इक उम्र कलेजे से लगाए रखा,

जिनका हर लफ्ज़ मुझे याद था पानी की तरह,
याद थे मुझको जो पैगाम-ऐ-जुबानी की तरह,
मुझ को प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह,

तूने दुनिया की निगाहों से जो बचाकर लिखे,
सालाहा-साल मेरे नाम बराबर लिखे,
कभी दिन में तो कभी रात में उठकर लिखे,

तेरे खुशबु मे बसे ख़त मैं जलाता कैसे,
प्यार मे डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे,
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे,

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ,







अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको

ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ ‘क़तील’
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको






परेशाँ रात सारी है, सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूते मर्ग तारी है, सितारों तुम तो सो जाओ


हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही किस्मत हमारी है, सितारों तुम तो सो जाओ

हमें भी नींद आ जाएगी, हम भी सो जाऐंगे
अभी कुछ बेक़रारी है, सितारों तुम तो सो जाओ



ये मोजेज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे
के सँग तुझपे गिरे और ज़ख्म आये मुझे

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूँ नहीं करता
वो बद-गुमाँ है तो सौ बार आज़माये मुझे

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँन को मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ ‘क़तील’
ग़मे हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे




दिल को ग़मे हयात गवारा है इन दिनों
पहले जो दर्द था वही चारा है इन दिनों

ये दिल, ज़रा सा दिल तेरी यादों में खो गया है
ज़र्रे को आँन्धियों का सहारा है इन दिनों

तुम आ ना सको तो शब को बढ़ा दूँ कुछ और भी
अपने कहे में सुब्ह का तारा है इन दिनों



तुम्हारी अन्जुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबिस्ता हुये तुम से वो अफसाने कहाँ जाते

निकल करा दैरो काबा से अगर मिलता ना मैख़ाना
तो ठुकराये हुये इन्सान ख़ुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमानें कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानग़ी अपनी
वगरना हम जमाने भर को समझाने कहाँ जाते




सदमा तो है मुझे भी के तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ के अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पड़ा है तेरे घर में तेरा वजूद
बेकार महफिलों में तुझे ढूँडता हूँ मैं

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक़ ऐ मेरे रक़ीब
दो-चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं




अँगड़ाई पर अँगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो तुम क्या जानों बात मेरी तन्हाई की

कौन सियाही घोल रहा था वक्त के बहते दरिया में
मैनें आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की

वस्ल की रात ने जाने क्यूँ इसरार था उनको जाने पर
वक्त से पहले डूब गये, तारों ने बड़ी दानाई की

उड़ते उड़ते आस का पँछी दूर उफ़क़ में डूब गया
रोते रोते बैठ गयी आवाज़ किसी सौदाई की

हो गई है पीर पर्वत-सी- दुष्यंत कुमार


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

सूर्य का स्वागत- दुष्यंत कुमार


परदे हटाकर करीने से रोशनदान खोलकर कमरे का फर्नीचर सजाकर और स्वागत के शब्दों को तोलकर टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ और देखता रहता हूँ मैं। सड़कों पर धूप चिलचिलाती है चिड़िया तक दिखाई नही देती पिघले तारकोल में हवा तक चिपक जाती है बहती बहती, किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से एक शब्द नही कहता हूँ मैं। सिर्फ कल्पनाओं से सूखी और बंजर जमीन को खरोंचता हूँ जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में उनके बारे में सोचता हूँ कितनी अजीब बात है कि आज भी प्रतीक्षा सहता हूँ।

कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए- दुष्यंत कुमार



कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए|
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए|
न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए|
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए|
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए|
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए|

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है-दुष्यंत कुमार


इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है|
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है|
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है|
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है|
निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है|
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है|

कहना उसे - मेहँदी हसन



संगीत : नियाज़ अहमद
शायर : फरहाद शहजाद

खुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था


खुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था
दहकती आग थी तन्हाई थी फ़साना था

ग़मों ने बाँट लिया है मुझे यूँ आपस में
कि जैसे मैं कोई लूटा हुआ ख़ज़ाना था

जुदा है शाख़ से गुल\-रुत से आशियाने से
कली का जुर्म घड़ी भर का मुस्कुराना था

ये क्या कि चन्द ही क़दमों में थक के बैठ गये
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था

मुझे जो मेरे लहू में डबो के गुज़रा है
वो कोई ग़ैर नहीं यार एक पुराना था

ख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उसको काट दिया
कि जिस दरख़्त की टहनी पे आशियाना था




टूटे हुए ख़ाबों के लिये आँख ये तर क्यूँ


टूटे हुए ख़ाबों के लिये आँख ये तर क्यूँ
सोचो तो सही शाम है अंजाम\-ए\-सहर क्यूँ

जो ताज सजाए हुए फिरता हो अनोखा
हालात के क़दमों पे झुकेगा वही सर क्यूँ

सिलते हैं तो सिल जाएं किसे फ़िक़्र लबों की
ख़ुश\-रंग अँधेरों को कहूँगा मैं सहर क्यूँ

सोचा किया मैं हिज्र की दहलीज पे बैठा
सदियों में उतर जाता है लम्हों का सफ़र क्यूँ

हरजाई है 'शहज़ाद' ये तस्लें य पजाना
सोचा भी कभी तुमने हुआ ऐसा मग क्यूँ





देखना उनका कनखियों से इधर देखा किये


देखना उनका कनखियों से इधर देखा किये
अपनी आह-ए-कम-असर का हम-असर देखा किये

जो ब\-जाहिर हमसे सदियों की मुसाफ़त-बर रहे
हम उन्हें हर गाम अपना हमसफ़र देखा किये

लम्हा लम्हा वक़्त का सैलाब चढ़ता ही गया
रफ़्ता रफ़्ता डूबता हम अपना घर देखा किये

कोई क्या जाने के कैसे हम भरी बरसात में
नज़र-ए-आतिश अपने ही दिल का नगर देखा किये

सुन के वो 'शहज़ाद' के अशआर सर धुनता रहा
थाम कर हम दोनों हाथों से जिगर देखा किये




फ़ैसला तुमको भूल जाने का


फ़ैसला तुमको भूल जाने का
इक नया ख़ाब है दीवाने का

दिल कली का लरज़ लरज़ उठा
ज़िक्र था फिर बहार आने का

हौसला कम किसी में होता है
जीत कर ख़ुद ही हार जाने का

ज़िंदगी कट गई मनाते हुए
अब इरादा है रूठ जाने का

आप शहज़ाद की न फ़िक्र करें
वो तो आदी है ज़ख़्म खाने का





सबके दिल में रहता हूँ पर दिल का आंगन खाली है


सबके दिल में रहता हूँ पर दिल का आंगन खाली है
ख़ुशियाँ बाँट रहा हूँ जग में अपना दामन खाली है

गुल रुत आई कलियाँ चटकीं पत्ती पती मुस्काई
पर एक भँवरा न होने से गुलशन गुलशन खाली है

रंगों का उकताम नहीं हर\-चन्द यहाँ पर जाने क्यूँ
रंग बरंगों तनवारं का सच में ही मन खाली है

दर दर की ठुकराई हुई ऐ महबूबा\-ए\-तनहाई
आ मिल जुल कर रह ले इसमें दिल का नशेमन खाली है





तन्हा तन्हा मत सोचा कर


तन्हा तन्हा मत सोचा कर
मर जाएगा मत सोचा कर

प्यार घड़ी भर का ही बहुत है
झूठा सच्चा मत सोचा कर

जिसकी फ़ितरत ही डँसना हो
वो तो डँसेगा मत सोचा कर

धूप में तन्हा कर जाता है
क्यूँ ये साया मत सोचा कर

अपना आप गँवा कर तूने
क्या पाया है मत सोचा कर

मान मेरे 'शहज़ाद' वगरना
पछताएगा मत सोचा कर





एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा



एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा था ख़ुदा हो बैठा

उठ के मंज़िल ही अगर आये तो शायद कुछ हो
शौक़\-ए\-मंज़िल तो मेरा आब्ला\-पा हो बैठा

मसलह्त छीन ली क़ुव्वत\-ए\-ग़ुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मेरा मेरी ख़ता हो बैठा

शुक्रिया ऐ मेरे क़ातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तूने दिया था वो दवा हो बैठा

जान\-ए\-शहज़ाद को मिन\-जुम्ला\-ए\-आदा पा कर
हूक वो उट्ठी कि जी तन से जुदा हो बैठा



क्या टूटा है अन्दर अन्दर चेहरा क्यूँ कुम्हलाया है


क्या टूटा है अन्दर अन्दर चेहरा क्यूँ कुम्हलाया है
क्या टूटा है अन्दर अन्दर क्यूँ चेहरा कुम्हलाया है
तन्हा तन्हा रोने वालो कौन तुम्हें याद आया है

चुपके चुपके सुलग़ रहे थे याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो क्या उनको समझाया है

रंग बिरंगी इस महफ़िल में तुम क्यूँ इतने चुप चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ है ख़ून है दिल का जो लफ़्ज़ों में बिखरा है
दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गर्माया है

अब 'शहज़ाद' ये झूठ न बोलो वो इतना बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो गर इल्ज़ाम लगाया है'




कोंपलें फिर फूट आईं शाख़ पर कहना उसे


कोंपलें फिर फूट आईं शाख़ पर कहना उसे
वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे

वक़्त का तूफ़ान हर इक शय बहा कर ले गया
इतनी तन्हा हो गई है रहगुज़र कहना उसे

जा रहा है छोड़ कर तन्हा मुझे जिसके लिये
चैन न दे पायेगा वो सीम\-ओ\-ज़र कहना उसे

रिस रहा हो ख़ून दिल से लब मगर हँसते रहे
कर गया बरबाद मुझको ये हुनर कहना उसे

जिसने ज़ख़्मों से मेरा 'शहज़ाद' सीना भर दिया
मुस्करा कर आज प्यारे चारागर कहना उसे

गुलिस्तां - इकबाल बानो - उस्ताद सबरी खान




राम करे कहीं नैना न उलझे
गीतकार - हसरत जयपुरी 

राम करे कहीं नैना न उलझे

इन नैनन की रीत बुरी है
इन नैनों उलझाये न सुलझे

शब-ए-फ़िराक़ में यूँ दिल का दाग़ जलता है
मकान-ए- जैसे चराग़ जलता है

चश्म-ए-पुरनम है जिगर जलता है
क्या क़यामत है के बरसात में घर जलता है

क़रार छीन लिया बेक़रार छोड़ गये
बहार ले गये याद-ए-बहार छोड़ गये

हमारे चश्म-ए-हज़ीं को न कुछ ख़याल किया
वो उम्र भर के लिये अश्क़बार छोड़ गये'




अब के सावन घर आ जा 

अब के सावन घर आ जा
बिदेशी सैंया हूँ अकेली

उडियो रे कगवा, ले जइयो संदेसवा
पिया के पास ले जा

तेरी सोनें चूँच मढ़ाउंगी
पंख के ऊपर लिखूंगी


गोरी तोरे नैना काजर बिन 
गीतकार : कैफ़ी आज़मी 

गोरी तोरे नैना काजर बिन कारे
छलके छलक तरसाये
समय बदल दे जब मिल जाए

आबिदा - फैज़ [ Faiz By Abida] एल्बम - १



गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात

और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी
और उन हाथों से मस्स होंगे ये तरसे हुए हाथ

उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं

जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं

आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी,
वो ही ख्वाबीदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर

रंग-ए-रुख्सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर

अपने अफ़कार की अशार की दुनिया है यही
जाने मज़मूं है यही, शाहिदे-ए-माना है यही

अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही
तबे शायर का वतन इनके सिवा और नही

ये खूं की महक है कि लब-ए-यार की खुशबू
किस राह की जानिब से सबा आती है देखो

गुलशन में बहार आई कि ज़िंदा हुआ आबाद
किस सिंध से नग्मों की सदा आती है देखो





नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही 


नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही 
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही 

ना तन में खून फराहम ना अश्क आँखों में 
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब हैं बे-वजू ही सही 

किसी तरह तो जमें बज़्म मयकदे वालों 
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही 

गर इंतज़ार कठिन हैं तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फर्दा की गुफ्तगू ही सही

दयार-ए-गैर में महरम अगर नहीं कोई 
तो ‘फ़ैज़’ ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही 





हमने सब शेर में सँवारे थे


हमने सब शेर में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे

रंगों ख़ुश्बू के, हुस्नो-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे

तेरे क़ौलो-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे

जब वो लालो-गुहर हिसाब किए
जो तरे ग़म ने दिल पे वारे थे

मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्ते-फ़लक में तारे थे

उम्रे-जाविदे की दुआ करते थे
‘फ़ैज़’ इतने वो कब हमारे थे

हिट्स ऑफ़ बेगम अख्तर - १



आज बेगम अख़्तर की जन्‍म-शती है. आज सुनिए उनके ये खूबसूरत ग़ज़ल. ये उनके गजलों का पहला भाग है.


संगीतकार - खय्याम


शायर : मोमिन खां मोमिन 

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो

वो नये गिले वोह शिक़ायतें, वो मज़े मज़े की हिक़ायतें
वो हर एक बात पे रूठन तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो के न याद हो


वो जो लुत्फ़ मुझ से थे पेशतर, वो क़रम कि था मेरे हाल पर
मुझे सब है याद ज़र्रा-ज़र्रा, तुम्हें याद हो के न याद हो

कोई बात ऐसी अगर हुई, जो तुम्हारी जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही बोलना, तुम्हें याद हो के न याद हो


जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ 'मोमिन-ए-मुब्तिला, तुम्हें याद हो के न याद हो



शायर  : ग़ालिब

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़ीश्त दर्द से भर न आये क्यूँ
रोयेंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यूँ

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम गैर हमें उठाये क्यूँ

क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यूँ

'ग़ालिब"-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बन्द हैं
रोइये ज़ार-ज़ार क्या कीजिये हाय-हाय क्यूँ

..

इब्न-ए-मरियुम हुआ करे कोई
मेरे दुःख की दवा करे कोई

न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई

बात पर वाँ ज़ुबान कटती है
वह कहें और सुना करे कोई

कौन है जो नहीं है हाजतमंद
किसकी हाजत रवा करे कोई

जब तवक़्क़ू ही उठ गई 'ग़ालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई




शायर : शकील

मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब, मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे

मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी, इसी रौशनी से है ज़िंदगी
मुझे डर है ऐ मेरे चाराग़र, ये चराग़ तू ही बुझा न दे

मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चाराग़र
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुक़्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा न दे

मेरा ज़ुल्म इतना बुलन्द है के पराये शोलों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे

वो उठे हैं लेके हुम-ओ-सुबू, अरे ओ 'शक़ील' कहाँ है तू
तेरा जाम लेने को बज़्म में कोइ और हाथ बढ़ा न दे



शायर : अली अहमद जलीली 

अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते
तौबा के बाद ये मंज़र नहीं देखे जाते

मस्त कर के मुझे, औरों को लगा मुंह साक़ी
ये करम होश में रह कर नहीं देखे जाते

साथ हर एक को इस राह में चलना होगा
इश्क़ में रहज़ान-ओ-रहबार नहीं देखे जाते

हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
उन के बदले हुए तेवर नहीं देखे जाते



शायर : मीर तकी मीर 

उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुबह हुई आराम किया

याँ के सफ़ेद-ओ-स्याह में हमको दख़्ल जो है सो इतना है
रात को रो रो सुबहो किया और सुबहो को ज्यों त्यों शाम किया

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उनने तो
कश्क़ा खेंचा दैर में बैठा कबका तर्क इस्लाम किया




शायर : दाग देल्वी 

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाकात बताते भी नहीं

ख़ूब परदा है के चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

हो चुका क़ता ताल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं



शायर : तस्कीन कुरैशी

अब तो यही हैं दिल की दुआएं
भूलने वाले भूल ही जायें

वजह-ए-सितम कुछ हो तो बतायें
एक मोहब्बत लाख ख़तायें

दर्द-ए-मोहब्बत दिल में छुपाया
आँख के आँसू कैसे छुपायें

होश और उनकी दीद का दावा
देखने वाले होश में आयें

दिल की तबाही भूले नहीं हम
देते हैं अब तक उनको दुआएं

रंग-ए-ज़माना देखने वाले
उनकी नज़र भी देखते जायें

शग़ल-ए-मोहब्बत अब है ये 'तस्कीं'
शेर कहें और जी बहलायें

..

किससे पूछें हमने कहाँ चेहरा-ए-रोशन देखा है
महफ़िल-महफ़िल ढूँढ चुके हैं गुलशन-गुलशन देखा है

किसको देखें किसको न देखें फूल भी हैं कलियाँ भी मगर
जिससे लगाई आँख उसी को दिल का दुश्मन देखा है

रंग-ए\बहार-ए-सुबह-ए-गुलिस्ताँ क्या देखे वो दीवाना
जिसकी नज़र ने एक ही गुल में सारा गुलशन देखा है

अहल-ए-वफ़ा की ख़ून की छीटें दूर तक उड़ कर जाती हैं
मेरा तड़पना देखने वाले अपना भी दामन देखा है

आज उन्हें जो चाहे समझ लो वरना यही 'तस्कीं" है जिन्हें
कल तक हमने कू-ए-बुता में काक़-ब-दामन देखा है


शायर :  शमीम जयपुरी

इलाही काश ग़म-ए-इश्क़ काम कर जाये
जो कल गुज़रनी है मुझपे अभी गुज़र जाये

तमाम उम्र रहे हम तो ख़ैर काँटों में
ख़ुदा करे तेरा दामन गुलों से भर जाये

ज़माना अहल-ए-खिरद से तो हो चुका मायूस
अजब नहीं कोई दीवाना काम कर जाये

हमारा हश्र तो जो कुछ हुआ हुआ लेकिन
दुआएँ हैं के तेरी आक-ए-बत सँवर जाये

निगाह-ए-शौक़ वही है निगाह-ए-शौक़ 'शमीम'
जो एक बार रुख़-ए-यार पर ठहर जाये


फिर वही शाम - तलत महमूद के तीन गाने


आज सुनिए तलत महमूद की आवाज़ में ये तीन खूबसूरत नगमें...

गाना : फिर वही शाम, वही गम
फिल्म : जहां आरा 
गीतकार : राजेन्द्र कृष्ण 
गायक : तलत मेहमूद 
संगीतकार : मदन मोहन 


फिर वोही शाम, वोही गम, वोही तनहाई है
दिल को समझाने तेरी याद चली आयी है

फिर तसव्वुर तेरे पहलू में बिठा जाएगा
फिर गया वक्त घड़ी भर को पलट आयेगा
दिल बहल जाएगा आखिर को तो सौदाई है

जाने अब तुझ से मुलाक़ात कभी हो के न हो
जो अधूरी रही वो बात कभी हो के न हो
मेरी मंज़िल तेरी मंज़िल से बिछड आयी है




गाना - शाम ए-गम की कसम 
फिल्म - फूटपाथ
गायक : तलत मेहमूद 
संगीतकार : खय्याम 

शाम-ए-गम की कसम, आज ग़मगीं है हम
आ भी जा, आ भी जा आज मेरे सनम
दिल परेशान है, रात वीरान है
देख जा किस तरह आज तनहा है हम

चैन कैसा जो पहलू में तू ही नहीं
मार डाले ना दर्द-ए-जुदाई कही
रुत हंसी है तो क्या, चांदनी है तो क्या
चांदनी जुल्म है, और जुदाई सितम

अब तो आजा के अब रात भी सो गयी
जिन्दगी ग़म के सेहराओ में खो गयी
ढूँढती है नजर, तू कहा है मगर
देखते देखते आया आँखों में ग़म


गाना - : ज़िन्दगी देनेवाले सुन 
फिल्म  - दिल ए नादान 
गीतकार : शकिल बदायुनी
गायक : तलत मेहमूद 


जिंदगी देनेवाले सुन
तेरी दुनियाँ से दिल भर गया
मैं यहाँ जीते जी मर गया

रात कटती नहीं, दिन गुजरता नहीं
जख्म ऐसा दिया है के भरता नहीं
आँख वीरान है, दिल परेशान है
गम का सामान है, जैसे जादू कोई कर गया

बे-ख़ता तूने मुझ से खुशी छीन ली
ज़िंदा रखा मगर जिंदगी छीन ली
कर दिया दिल का खून, चूप कहा तक रहूँ
साफ़ क्यों ना कहूँ, तू ख़ुशी से मेरी डर गया

याद कर के मुझे नम हो गई पलकें - परवीन शाकिर


याद कर के मुझे नाम हो गई होगी पलकें 
"आँख में कुछ पड़ गया कह के टाला होगा 
और घबरा के किताबों में जो ली होगी पनाह 
हर सतर में मेरा चेहरा उभर आया होगा 

जब मिली होगी मुझे मेरी हालत की खबर 
उस ने आहिस्ता से दिवार को थामा होगा 
सोच कर ये थम जाए परेशानी-ए-दिल 
युहीं बेवजह किसी शख्स को रोका होगा 

इत्तिफाकन मुझे उस शाम मेरी दोस्त मिली 
मैंने पूछा कि सुनो, आये थे वो? कैसे थे? 
मुझको पूछा था? मुझे ढूँढा था चारों जानिब 
उसने इक लमहे को देखा मुझे और फिर हँस दी 
उस हँसी में वो तल्खी थी कि उसने आगे क्या कहा 
उसने मुझे याद नहीं है लेकिन इतना मालुम है,
ख्वाबों का भरम टूट गया 

मैं और मिरी आवारगी - जावेद अख़्तर

फिरते हैं कब से दर-बदर अब इस नगर अब उस नगर
इक दूसरे के हमसफ़र मैं और मिरी आवारगी
नाआश्ना हर रहगुज़र नामेहरबां हर इक नज़र
जाएँ तो अब जाएँ किधर मैं और मिरी आवारगी

हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बरबाद थे
बेफ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर थे दिलशाद थे
वो चाल ऐसी चल गया हम बुझ गये दिल जल गया
निकले जलाके अपना घर मैं और मिरी आवारगी

जीना बहुत आसान था इक शख़्स का एहसान था
हमको भी इक अरमान था जो ख़्वाब का सामान था
अब ख़्वाब हैं न आरज़ू अरमान है न जुस्तजू
यूँ भी चलो ख़ुश हैं मगर मैं और मिरी आवारगी

वो माहवश वो माहरू वो माहे कामिल हू-बहू
थीं जिस की बातें कू-बकू उससे अजब थी गुफ़्तगू
फिर यूँ हुआ वो खो गई तो मुझको ज़िद सी हो गई
लायेंगे उस को ढूँढकर मैं और मिरी आवारगी

ये दिल ही था जो सह गया वो बात ऐसी कह गया
कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया
जब कहके वो दिलबर गया तेरे लिये मैं मर गया
रोते हैं उसको रात भर मैं और मिरी आवारगी

अब ग़म उठायें किसलिये आँसू बहाएँ किसलिये
ये दिल जलाएँ किसलिये यूँ जाँ गवायें किसलिये
पेशा न हो जिसका सितम ढूँढेगे अब ऐसा सनम
होंगे कहीं तो कारगर मैं और मिरी आवारगी

आसार हैं सब खोट के इमकान हैं सब चोट के
घर बंद हैं सब गोट के अब ख़त्म है सब टोटके
क़िस्मत का सब ये फेर है अँधेर ही अँधेर है
ऐसे हुए हैं बेअसर मैं और मिरी आवारगी

जब हमदमो हमराज़ था तब और ही अन्दाज़ था
अब सोज़ है तब साज़ था अब शर्म है तब नाज़ था
अब मुझसे हो तो हो भी क्या है साथ वो तो वो भी क्या
इक बेहुनर इक बेसमर मैं और मिरी आवारगी

स्वीटा...किल दिल...


गाना - किल दिल..  - Kil Dil  
फिल्म - किल दिल - Kil Dil - 
गीतकार : गुलज़ार 
संगीतकार : शंकर-इशान-लॉय  
गायक : शंकर महादेवन, सोनू निगम  

वॉव वॉव
वॉव वॉव वॉव
वॉव-वॉव वॉव-वॉव-वॉव

तारा… देख तारा..
आसमान पे लटका है बेचारा..
ये ज़मीन...गर्दिशों में थी
घूम, घूम, घूम के मारा यारा
हम भी कहीं.. लटके नहीं
रोको ज़मीन..
दो ही दिन का है तमाशा
पाशा.. ओ..मेरे पाशा..
यार पाशा
जी भर के, जी भर ले
आज है, आज है, आज है, आज है
कल कुछ नहीं

क क क किल किल, द द द दिल दिल
क क क किल किल, द द द दिल दिल


महंगी है ये ज़िन्दगी
कोई छोटा सौदा नहीं
ऊंची खजुरी है ये
गमले का पौधा नहीं

जान भी ये तेरी नहीं
कल तक चली जायेगी
घर भी चला जाएगा
जब ये गली जायेगी

जम के जीने दो, दिन चार
ले कम ही जीले....
पीना पड़े तो गम ही पीले.. तू तू तू.
तू यारा

यारों की यारियाँ जिंदा रहेंगी
तारों की झाड़ियाँ नाका करेंगी
तारों ने पाला है तो तो तो...

क क क किल किल, द द द दिल दिल
क क क किल किल, द द द दिल दिल


गाना - स्वीटा..  - Sweeta  
फिल्म - किल दिल - Kil Dil - 
गीतकार : गुलज़ार 
संगीतकार : शंकर-इशान-लॉय  
गायक : अदनान सामी

मैं आँखों से पहचानता हूँ...अच्छे से हैं वो भले से
घर का पता भी न दें तो, एक बार मिल ले गले से ...
आँखों से आँखों ने क्या चख लिया है
मीठा लगा सीने में रख लिया है
चॉकलेट के टुकड़े होंट हैं तेरे
शहद के कतरे, स्वीटा... तुझसे नहीं कोई मीठा !

दिल दिल दिल दिल मसखरी कर रहा है
फिर मुझपे हँसने लगा है
फिर साँस तेज़ हो गयी है
फिर मुझको डंसने लगा है
हलके नशे में रहने लगा हूँ
अपने ही आप से से ही कहने लगा हूँ..
गहरी गर्मी में शरबत-ए-जम जम
रूऑफ़जा तू...स्वीटा...
तुझसे नहीं कोई मीठा..

एक ही मुश्दा सुभो लाती है - जॉन एलिया



एक ही मुश्दा सुभो लाती है
ज़हन में धूप फैल जाती है

सोचता हूँ के तेरी याद आखिर
अब किसे रात भर जगाती है

फर्श पर कागज़ो से फिरते है
मेज़ पर गर्द जमती जाती है

मैं भी इज़न-ए-नवागरी चाहूँ
बेदिली भी तो नब्ज़ हिलाती है

आप अपने से हम सुखन रहना
हमनशी सांस फूल जाती है

आज एक बात तो बताओ मुझे
ज़िन्दगी ख्वाब क्यो दिखाती है

क्या सितम है कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है

कौन इस घर की देख भाल करे
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है


अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे - ज़ौक़



अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे

सामने-चश्मे-गुहरबार के, कह दो, दरिया
चढ़ के अगर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे

ख़ाली ऐ चारागरों होंगे बहुत मरहमदान
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम से गुज़र जायेंगे

आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी अरक़-ए-शर्म से तर जायेंगे

हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे

रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह नज़रों से यारों के उतर जायेंगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, सँवर जायेंगे


इन्साइट - जगजीत सिंह | Insight - Jagjit Singh



मुहँ की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन
आवाजों के बाजारों में ख़ामोशी पहचाने कौन

सदियों सदियों वही तमाशा, रस्ता रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं, खो जाता है जाने कौन !

वो मेरा आईना है और मैं उसकी परछाई हूँ
मेरे घर में रहता है, मुझ जैसा ही जाने कौन

किरण किरण अलसाता सूरज, पलक पलक खुलती नींद
धीमे धीमे बिखर रहा है, ज़र्रा ज़र्रा जाने कौन

मुहँ की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन
आवाजों के बाजारों में ख़ामोशी पहचाने कौन 



चाँद से फूल से या मेरी जुबां से सुनिए,
हर तरफ आप का किसा जहां से सुनिए,

सब को आता है दुनिया को सता कर जीना,
ज़िंदगी क्या मुहब्बत की दुआ से सुनिए,

मेरी आवाज़ पर्दा मेरे चहरे का,
मैं हूँ खामोश जहां मुझको वहां से सुनिए,

क्या ज़रूरी है की हर पर्दा उठाया जाए,
मेरे हालात अपने अपने मकान से सुनिए..




जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलोना है
दो आँखो मे एक से हसँना एक से रोना है

जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है
हर जीवन जीवन जीने का समझौता है
अब तक जो होता आया है वो ही होना है

रात अन्धेरी भोर सुहानी यही ज़माना है
हर चादर मे दुख का ताना सुख का बाना है
आती साँस को पाना जाती साँस को खोना है




बदला ना अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

ढुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन मे नाराज़गी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दुर ही रहे

गुज़रो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमे खिले है फुल वो डाली हरी रहे



अपना गम ले के कही और ना जाया जाये
घर मे बिखरी हुई चीजो को सजाया जाये

जिन चिरागो को हवाओ का कोई खौफ़ नही
ऊन चिरागो को हवाओ से बचाया जाये

बाग मे जाने के आदाब हुआ करते है
किसी तित्ली को न फूलो से उडाया जाये

घर से मस्जिद है बहुत दुर चलो यू कर ले
किसी रोते हुये बच्चे को हसँया जाये

हम तो बचपन में भी अकेले थे - जावेद अख़्तर


हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे

इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
इक तरफ़ आँसुओं के रेले थे

थीं सजी हसरतें दूकानों पर
ज़िन्दगी के अजीब मेले थे

ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती
मौत के अपने सौ झमेले थे

ज़हनो-दिल आज भूखे मरते हैं
उन दिनों हमने फ़ाक़े झेले थे

ड्राइंग रूम में मरता हुआ गुलाब - हरिवंशराय बच्चन


गुलाब
तू बदरंग हो गया है
बदरूप हो गया है
झुक गया है
तेरा मुंह चुचुक गया है
तू चुक गया है ।

ऐसा तुझे देख कर
मेरा मन डरता है
फूल इतना डरावाना हो कर मरता है!

खुशनुमा गुलदस्ते में
सजे हुए कमरे में
तू जब

ऋतु-राज राजदूत बन आया था
कितना मन भाया था-
रंग-रूप, रस-गंध टटका
क्षण भर को
पंखुरी की परतो में
जैसे हो अमरत्व अटका!
कृत्रिमता देती है कितना बडा झटका!

तू आसमान के नीचे सोता
तो ओस से मुंह धोता
हवा के झोंके से झरता
पंखुरी पंखुरी बिखरता
धरती पर संवरता
प्रकृति में भी है सुंदरता

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है - जॉन एलिया


तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है

हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है

लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले - जौक

लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले

नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है वो ही हो
दानिश तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले

जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बादे-सबा अब कहीं चले

बेगम अख्तर की आवाज़ में सुनिए इस ग़ज़ल को 

भूख - जावेद अख़्तर

आँख खुल मेरी गई हो गया मैं फिर ज़िन्दा
पेट के अन्धेरो से ज़हन के धुन्धलको तक
एक साँप के जैसा रेंगता खयाल आया
आज तीसरा दिन है
आज तीसरा दिन है

एक अजीब खामोशी से भरा हुआ कमरा कैसा खाली-खाली है
मेज़ जगह पर रखी है कुर्सी जगह पर रखी है फर्श जगह पर रखी है
अपनी जगह पर ये छत अपनी जगह दीवारे
मुझसे बेताल्लुक सब, सब मेरे तमाशाई है
सामने की खिड़्की से तीज़ धूप की किरने आ रही है बिस्तर पर
चुभ रही है चेहरे में इस कदर नुकीली है
जैसे रिश्तेदारो के तंज़ मेरी गुर्बत पर
आँख खुल गई मेरी आज खोखला हूँ मै
सिर्फ खोल बाकी है
आज मेरे बिस्तर पर लेटा है मेरा ढाँचा
अपनी मुर्दा आँखो से देखता है कमरे को एक सर्द सन्नाटा
आज तीसरा दिन है
आज तीसरा दिन है

दोपहर की गर्मी में बेरादा कदमों से एक सड़क पर चलता हूँ
तंग सी सड़क पर है दौनो सिम पर दुकाने
खाली-खाली आँखो से हर दुकान का तख्ता
सिर्फ देख सकता हूँ अब पढ़ नहीं जाता
लोग आते-जाते है पास से गुज़रते है
सब है जैसे बेचेहरा
दूर की सदाए है आ रही है दूर

कल चौंदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा



कल चौंदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा

हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मज़ूंर था पर्दा तिरा

इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा

कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर
जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा

हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा

दो अश्क जाने किस लिए पल्कों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा

ऐ बे-दरीग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा

हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र
रस्ता कभी रोका तिरा दामन कभी थामा तिरा

हाँ हाँ तिरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शख़्स के अशआर से शोहरा हुआ क्या क्या तिरा

बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तिरा रूस्वा तिरा शाइर तिरा ‘इंशा’ तिरा

-

जगजीत सिंह द्वारा गाया गया  ग़ज़ल 



जगजीत सिंह के दो कंसर्ट 






गुलाम अली द्वारा गाया गया ग़ज़ल 



गुलाम अली का कंसर्ट 



जगजीत सिंह और गुलाम अली, दोनों साथ में 

चांद का मुँह टेढ़ा है - गजानन माधव मुक्तिबोध


नगर के बीचों-बीच
आधी रात--अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई

भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना--अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार--चिह्नाकार--मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।

समीप विशालकार
अंधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चांदनी भी सँवलायी हुई है !!

भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये
हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी--
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चांद की ।
बारह का वक़्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त है !!
अजी, इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब--
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में
बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये--
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप ।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों की बीट--
मानो समय की बीट हो !!
गगन में कर्फ़्यू है,
वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः थूः है ।
बरगद की डाल एक
मुहाने से आगे फैल
सड़क पर बाहरी
लटकती है इस तरह--
मानो कि आदमी के जनम के पहले से
पृथ्वी की छाती पर
जंगली मैमथ की सूँड़ सूँघ रही हो
हवा के लहरीले सिफ़रों को आज भी
बरगद की घनी-घनी छाँव में
फूटी हुई चूड़ियों की सूनी-सूनी कलाई-सी
सूनी-सूनी गलियों में
ग़रीबों के ठाँव में--
चौराहे पर खड़े हुए
भैरों की सिन्दूरी
गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी,
तिलिस्मी चांद की राज़-भरी झाइयाँ !!
तजुर्बों का ताबूत
ज़िन्दा यह बरगद
जानता कि भैरों यह कौन है !!
कि भैरों की चट्टानी पीठ पर
पैरों की मज़बूत
पत्थरी-सिन्दूरी ईट पर
भभकते वर्णों के लटकते पोस्टर
ज्वलन्त अक्षर !!
सामने है अंधियाला ताल और
स्याह उसी ताल पर
सँवलायी चांदनी,
समय का घण्टाघर,
निराकार घण्टाघर,
गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है !!
परन्तु, परन्तु...बतलाते
ज़िन्दगी के काँटे ही
कितनी रात बीत गयी
चप्पलों की छपछप,
गली के मुहाने से अजीब-सी आवाज़,
फुसफुसाते हुए शब्द !
जंगल की डालों से गुज़रती हवाओं की सरसर
गली में ज्यों कह जाय
इशारों के आशय,
हवाओं की लहरों के आकार--
किन्हीं ब्रह्मराक्षसों के निराकार
अनाकार
मानो बहस छेड़ दें
बहस जैसे बढ़ जाय
निर्णय पर चली आय
वैसे शब्द बार-बार
गलियों की आत्मा में
बोलते हैं एकाएक
अंधेरे के पेट में से
ज्वालाओं की आँत बाहर निकल आय
वैसे, अरे, शब्दों की धार एक
बिजली के टॉर्च की रोशनी की मार एक
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गयी अकस्मात्
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गये हाथ दो
मानो ह्रदय में छिपी हुई बातों ने सहसा
अंधेरे से बाहर आ भुजाएँ पसारी हों
फैले गये हाथ दो
चिपका गये पोस्टर
बाँके तिरछे वर्ण और
लाल नीले घनघोर
हड़ताली अक्षर
इन्ही हलचलों के ही कारण तो सहसा
बरगद में पले हुए पंखों की डरी हुई
चौंकी हुई अजीब-सी गन्दी फड़फड़
अंधेरे की आत्मा से करते हुए शिकायत
काँव-काँव करते हुए पक्षियों के जमघट
उड़ने लगे अकस्मात्
मानो अंधेरे के
ह्रदय में सन्देही शंकाओं के पक्षाघात !!
मद्धिम चांदनी में एकाएक एकाएक
खपरैलों पर ठहर गयी
बिल्ली एक चुपचाप
रजनी के निजी गुप्तचरों की प्रतिनिधि
पूँछ उठाये वह
जंगली तेज़
आँख
फैलाये
यमदूत-पुत्री-सी
(सभी देह स्याह, पर
पंजे सिर्फ़ श्वेत और
ख़ून टपकाते हुए नाख़ून)
देखती है मार्जार
चिपकाता कौन है
मकानों की पीठ पर
अहातों की भीत पर
बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर
अंधेरे के कन्धों पर
चिपकाता कौन है ?
चिपकाता कौन है
हड़ताली पोस्टर
बड़े-बड़े अक्षर
बाँके-तिरछे वर्ण और
लम्बे-चौड़े घनघोर
लाल-नीले भयंकर
हड़ताली पोस्टर !!
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी भी ख़ूब है
मकान-मकान घुस लोहे के गज़ों की जाली
के झरोखों को पार कर

लिपे हुए कमरे में
जेल के कपड़े-सी फैली है चांदनी,
दूर-दूर काली-काली
धारियों के बड़े-बड़े चौखट्टों के मोटे-मोटे
कपड़े-सी फैली है

लेटी है जालीदार झरोखे से आयी हुई
जेल सुझाती हुई ऐयारी रोशनी !!
अंधियाले ताल पर
काले घिने पंखों के बार-बार
चक्करों के मंडराते विस्तार
घिना चिमगादड़-दल भटकता है चारों ओर
मानो अहं के अवरुद्ध
अपावन अशुद्ध घेरे में घिरे हुए
नपुंसक पंखों की छटपटाती रफ़्तार
घिना चिमगादड़-दल
भटकता है प्यासा-सा,
बुद्धि की आँखों में
स्वार्थों के शीशे-सा !!
बरगद को किन्तु सब
पता था इतिहास,
कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च
गान्धी के पुतले पर
बैठे हुए आँखों के दो चक्र
यानी कि घुग्घू एक--
तिलक के पुतले पर
बैठे हुए घुग्घू से
बातचीत करते हुए
कहता ही जाता है--
"......मसान में......
मैंने भी सिद्धि की ।
देखो मूठ मार दी
मनुष्यों पर इस तरह......"
तिलक के पुतले पर बैठे हुए घुग्घू ने
देखा कि भयानक लाल मूँठ
काले आसमान में
तैरती-सी धीरे-धीरे जा रही
उद्गार-चिह्नाकार विकराल
तैरता था लाल-लाल !!
देख, उसने कहा कि वाह-वाह
रात के जहाँपनाह
इसीलिए आज-कल
दिल के उजाले में भी अंधेरे की साख है
रात्रि की काँखों में दबी हुई
संस्कृति-पाखी के पंख है सुरक्षित !!
...पी गया आसमान
रात्रि की अंधियाली सच्चाइयाँ घोंट के,
मनुष्यों को मारने के ख़ूब हैं ये टोटके !
गगन में करफ़्यू है,
ज़माने में ज़ोरदार ज़हरीली छिः थूः है !!
सराफ़े में बिजली के बूदम
खम्भों पर लटके हुए मद्धिम
दिमाग़ में धुन्ध है,
चिन्ता है सट्टे की ह्रदय-विनाशिनी !!
रात्रि की काली स्याह
कड़ाही से अकस्मात्
सड़कों पर फैल गयी
सत्यों की मिठाई की चाशनी !!
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी
भीमाकार पुलों के
ठीक नीचे बैठकर,
चोरों-सी उचक्कों-सी
नालों और झरनों के तटों पर
किनारे-किनारे चल,
पानी पर झुके हुए
पेड़ों के नीचे बैठ,
रात-बे-रात वह
मछलियाँ फँसाती है
आवारा मछुओं-सी शोहदों-सी चांदनी
सड़कों के पिछवाड़े
टूटे-फूटे दृश्यों में,
गन्दगी के काले-से नाले के झाग पर
बदमस्त कल्पना-सी फैली थी रात-भर
सेक्स के कष्टों के कवियों के काम-सी !
किंग्सवे में मशहूर
रात की है ज़िन्दगी !
सड़कों की श्रीमान्
भारतीय फिरंगी दुकान,
सुगन्धित प्रकाश में चमचमाता ईमान
रंगीन चमकती चीज़ों के सुरभित
स्पर्शों में
शीशों की सुविशाल झाँइयों के रमणीय
दृश्यों में
बसी थी चांदनी
खूबसूरत अमरीकी मैग्ज़ीन-पृष्ठों-सी
खुली थी,
नंगी-सी नारियों के
उघरे हुए अंगों के
विभिन्न पोज़ों मे
लेटी थी चांदनी
सफे़द
अण्डरवियर-सी, आधुनिक प्रतीकों में
फैली थी
चांदनी !
करफ़्यू नहीं यहाँ, पसन्दगी...सन्दली,
किंग्सवे में मशहूर रात की है ज़िन्दगी
अजी, यह चांदनी भी बड़ी मसखरी है !!
तिमंज़ले की एक
खिड़की में बिल्ली के सफे़द धब्बे-सी
चमकती हुई वह
समेटकर हाथ-पाँव
किसी की ताक में
बैठी हुई चुपचाप
धीरे से उतरती है
रास्तों पर पथों पर;
चढ़ती है छतों पर
गैलरी में घूम और
खपरैलों पर चढ़कर
नीमों की शाखों के सहारे
आंगन में उतरकर
कमरों में हलके-पाँव
देखती है, खोजती है--
शहर के कोनों के तिकोने में छुपी हुई
चांदनी
सड़क के पेड़ों के गुम्बदों पर चढ़कर
महल उलाँघ कर
मुहल्ले पार कर
गलियों की गुहाओं में दबे-पाँव
खुफ़िया सुराग़ में
गुप्तचरी ताक में
जमी हुई खोजती है कौन वह
कन्धों पर अंधेरे के
चिपकाता कौन है
भड़कीले पोस्टर,
लम्बे-चौड़े वर्ण और
बाँके-तिरछे घनघोर
लाल-नीले अक्षर ।
कोलतारी सड़क के बीचों-बीच खड़ी हुई
गान्धी की मूर्ति पर
बैठे हुए घुग्घू ने
गाना शुरु किया,
हिचकी की ताल पर
साँसों ने तब
मर जाना
शुरु किया,
टेलीफ़ून-खम्भों पर थमे हुए तारों ने
सट्टे के ट्रंक-कॉल-सुरों में
थर्राना और झनझनाना शुरु किया !
रात्रि का काला-स्याह
कन-टोप पहने हुए
आसमान-बाबा ने हनुमान-चालीसा
डूबी हुई बानी में गाना शुरु किया ।
मसान के उजाड़
पेड़ों की अंधियाली शाख पर
लाल-लाल लटके हुए
प्रकाश के चीथड़े--
हिलते हुए, डुलते हुए, लपट के पल्लू ।
सचाई के अध-जले मुर्दों की चिताओं की
फटी हुई, फूटी हुई दहक में कवियों ने
बहकती कविताएँ गाना शुरु किया ।
संस्कृति के कुहरीले धुएँ से भूतों के
गोल-गोल मटकों से चेहरों ने
नम्रता के घिघियाते स्वांग में
दुनिया को हाथ जोड़
कहना शुरु किया--
बुद्ध के स्तूप में
मानव के सपने
गड़ गये, गाड़े गये !!
ईसा के पंख सब
झड़ गये, झाड़े गये !!
सत्य की
देवदासी-चोलियाँ उतारी गयी
उघारी गयीं,
सपनों की आँते सब
चीरी गयीं, फाड़ी गयीं !!
बाक़ी सब खोल है,
ज़िन्दगी में झोल है !!
गलियों का सिन्दूरी विकराल
खड़ा हुआ भैरों, किन्तु,
हँस पड़ा ख़तरनाक
चांदनी के चेहरे पर
गलियों की भूरी ख़ाक
उड़ने लगी धूल और
सँवलायी नंगी हुई चाँदनी !
और, उस अँधियाले ताल के उस पार
नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक
लोहे की नभ-चुम्भी शिला का चबूतरा
लोहांगी कहाता है
कि जिसके भव्य शीर्ष पर
बड़ा भारी खण्डहर
खण्डहर के ध्वंसों में बुज़ुर्ग दरख़्त एक
जिसके घने तने पर
लिक्खी है प्रेमियों ने
अपनी याददाश्तें,
लोहांगी में हवाएँ
दरख़्त में घुसकर
पत्तों से फुसफुसाती कहती हैं
नगर की व्यथाएँ
सभाओं की कथाएँ
मोर्चों की तड़प और
मकानों के मोर्चे
मीटिंगों के मर्म-राग
अंगारों से भरी हुई
प्राणों की गर्म राख
गलियों में बसी हुई छायाओं के लोक में
छायाएँ हिलीं कुछ
छायाएँ चली दो
मद्धिम चांदनी में
भैरों के सिन्दूरी भयावने मुख पर
छायीं दो छायाएँ
छरहरी छाइयाँ !!
रात्रि की थाहों में लिपटी हुई साँवली तहों में
ज़िन्दगी का प्रश्नमयी थरथर
थरथराते बेक़ाबू चांदनी के
पल्ले-सी उड़ती है गगन-कंगूरों पर ।
पीपल के पत्तों के कम्प में
चांदनी के चमकते कम्प से
ज़िन्दगी की अकुलायी थाहों के अंचल
उड़ते हैं हवा में !!
गलियों के आगे बढ़
बगल में लिये कुछ
मोटे-मोटे कागज़ों की घनी-घनी भोंगली
लटकाये हाथ में
डिब्बा एक टीन का
डिब्बे में धरे हुए लम्बी-सी कूँची एक
ज़माना नंगे-पैर
कहता मैं पेण्टर
शहर है साथ-साथ
कहता मैं कारीगर--
बरगद की गोल-गोल
हड्डियों की पत्तेदार
उलझनों के ढाँचों में
लटकाओ पोस्टर,
गलियों के अलमस्त
फ़क़ीरों के लहरदार
गीतों से फहराओ
चिपकाओ पोस्टर
कहता है कारीगर ।
मज़े में आते हुए
पेण्टर ने हँसकर कहा--
पोस्टर लगे हैं,
कि ठीक जगह
तड़के ही मज़दूर
पढ़ेंगे घूर-घूर,
रास्ते में खड़े-खड़े लोग-बाग
पढ़ेंगे ज़िन्दगी की
झल्लायी हुई आग !
प्यारे भाई कारीगर,
अगर खींच सकूँ मैं--
हड़ताली पोस्टर पढ़ते हुए
लोगों के रेखा-चित्र,
बड़ा मज़ा आयेगा ।
कत्थई खपरैलों से उठते हुए धुएँ
रंगों में
आसमानी सियाही मिलायी जाय,
सुबह की किरनों के रंगों में
रात के गृह-दीप-प्रकाश को आशाएँ घोलकर
हिम्मतें लायी जायँ,
स्याहियों से आँखें बने
आँखों की पुतली में धधक की लाल-लाल
पाँख बने,
एकाग्र ध्यान-भरी
आँखों की किरनें
पोस्टरों पर गिरे--तब
कहो भाई कैसा हो ?
कारीगर ने साथी के कन्धे पर हाथ रख
कहा तब--
मेरे भी करतब सुनो तुम,
धुएँ से कजलाये
कोठे की भीत पर
बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी
राम-कथा व्यथा की
कि आज भी जो सत्य है
लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है !!
तसवीरें बनाने की
इच्छा अभी बाक़ी है--
ज़िन्दगी भूरी ही नहीं, वह ख़ाकी है ।
ज़माने ने नगर के कन्धे पर हाथ रख
कह दिया साफ़-साफ़
पैरों के नखों से या डण्डे की नोक से
धरती की धूल में भी रेखाएँ खींचकर
तसवीरें बनाती हैं
बशर्ते कि ज़िन्दगी के चित्र-सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो, भाव हो ।
कारीगर ने हँसकर
बगल में खींचकर पेण्टर से कहा, भाई
चित्र बनाते वक़्त
सब स्वार्थ त्यागे जायँ,
अंधेरे से भरे हुए
ज़ीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो
अभिलाषा--अन्ध है
ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं
अपने लिए नहीं वे !!
ज़माने ने नगर से यह कहा कि
ग़लत है यह, भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम और
छीनने का दम है ।
फ़िलहाल तसवीरें
इस समय हम
नहीं बना पायेंगे
अलबत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे ।
हम धधकायेंगे ।
मानो या मानो मत
आज तो चन्द्र है, सविता है,
पोस्टर ही कविता है !!
वेदना के रक्त से लिखे गये
लाल-लाल घनघोर
धधकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
धड़कती छाती की प्यार-भरी गरमी में
भाफ-बने आँसू के ख़ूँख़ार अक्षर !!
चटाख से लगी हुई
रायफ़ली गोली के धड़ाकों से टकरा
प्रतिरोधी अक्षर
ज़माने के पैग़म्बर
टूटता आसमान थामते हैं कन्धों पर
हड़ताली पोस्टर
कहते हैं पोस्टर--
आदमी की दर्द-भरी गहरी पुकार सुन
पड़ता है दौड़ जो
आदमी है वह ख़ूब
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
बूढ़ी माँ के झुर्रीदार
चेहरे पर छाये हुए
आँखों में डूबे हुए
ज़िन्दगी के तजुर्बात
बोलते हैं एक साथ
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
चिल्लाते हैं पोस्टर ।
धरती का नीला पल्ला काँपता है
यानी आसमान काँपता है,
आदमी के ह्रदय में करुणा कि रिमझिम,
काली इस झड़ी में
विचारों की विक्षोभी तडित् कराहती
क्रोध की गुहाओं का मुँह खोले
शक्ति के पहाड़ दहाड़ते
काली इस झड़ी में वेदना की तडित् कराहती
मदद के लिए अब,
करुणा के रोंगटों में सन्नाटा
दौड़ पड़ता आदमी,
व आदमी के दौड़ने के साथ-साथ
दौड़ता जहान
और दौड़ पड़ता आसमान !!
मुहल्ले के मुहाने के उस पार
बहस छिड़ी हुई है,
पोस्टर पहने हुए
बरगद की शाखें ढीठ
पोस्टर धारण किये
भैंरों की कड़ी पीठ
भैंरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है
ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा
सुबह होगी कब और
मुश्किल होगी दूर कब
समय का कण-कण
गगन की कालिमा से
बूंद-बूंद चू रहा
तडित्-उजाला बन !!

यहूदी(1958) के गाने

गाना - ये मेरा दीवानापन है - Ye Mera deewanapan hai   
फिल्म - यहूदी - Yahudi 
गीतकार : शैलेन्द्र   
संगीतकार : शंकर-जयकिशन  
गायक : मुकेश

दिल से तुझको बेदिली है, मुझको है दिल का गुरूर
तू ये माने के न माने, लोग मानेंगे ज़ुरूर
ये मेरा दीवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर
तू न पहचाने तो है ये, तेरी नज़रों का क़ुसूर
ये मेरा दीवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर...

दिल को तेरी ही तमन्ना, दिल को है तुझसे ही प्यार
चाहे तू आए न आए, हम करेंगे इंतज़ार
ये मेरा दीवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर
तू न पहचाने तो है ये, तेरी नज़रों का क़ुसूर


ऐसे वीराने में इक दिन, घुट के मर जाएंगे हम
जितना जी चाहे पुकारो, फिर नहीं आएंगे हम
ये मेरा दीवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर
तू न पहचाने तो है ये, तेरी नज़रों का क़ुसूर

\



गाना - दिल में प्यार का तूफान - Dil mein pyar ka tufaan    
फिल्म - यहूदी - Yahudi 
गीतकार : शैलेन्द्र   
संगीतकार : शंकर-जयकिशन  
गायक : लता मंगेशकर 


दिल में प्यार का तूफ़ा, ना समझे कोई नादान

ज़ालिम घूर-घूर के, देखे दूर-दूर से

दिल में प्यार का तूफ़ा, ना समझे कोई नादान


जिसके लिए मैं सारी रात जागी

उसने ही देखो मेरी ख़बर न ली
छेड़े मीठे राग, मेरे दिल में जागे आग
दिल में प्यार का तूफ़ा, ना समझे कोई नादान
ज़ालिम घूर-घूर के, देखे दूर-दूर से

ये बेरुख़ी न दुआ न सलाम
मुझको वफ़ा का मिला ये ईनाम
वादा करना था आसान, जा देखा तेरा ईमान
दिल में प्यार का तूफ़ा, ना समझे कोई नादान
ज़ालिम घूर-घूर के, देखे दूर-दूर से



गाना - बेचैन दिल खोयी सी नज़र - Bechain dil khoyi si nazar     
फिल्म - यहूदी - Yahudi 
गीतकार : शैलेन्द्र   
संगीतकार : शंकर-जयकिशन  
गायक : लता मंगेशकर 

बेचैन दिल खोई सी नज़र
तन्हाइयों में शाम-ओ-सहर
तुम याद आते हो


दिल नहीं पहलू में रह गईं दो आँखें
जाने क्या-क्या हमसे कह गईं दो आँखें
सुनसान रातों में अक्सर
जब चाँद पे जाती है नज़र
तुम याद आते हो..


दिल तो दीवाना था हम भी क्या कर बैठे
मर्ज़ जाने क्या था क्या दवा कर बैठे
इक आह ठंडी सी भर कर
उनसे कोई कह दे जा कर
तुम याद आते हो..

हम तो ये समझे थे ख़त्म है अफ़साना
उठ चुकी है महफ़िल रह गया वीराना
हमको न थी लेकिन ये ख़बर
ख़ुद हम कहेंगे रह-रह कर
तुम याद आते हो..

बेचैन दिल खोई सी नज़र
तन्हाइयों में शाम-ओ-सहर
तुम याद आते हो



गाना - मेरी जाँ मेरी जाँ  - Meri jaan meri Jaan     
फिल्म - यहूदी - Yahudi 
गीतकार : शैलेन्द्र   
संगीतकार : शंकर-जयकिशन  
गायक : लता मंगेशकर 



मेरी जाँ मेरी जाँ प्यार किसी से हो ही गया है,
हम क्या करें..हम क्या करें,,,
और कोई क्या करे, दिल जो दिया है कोई क्या करे..

भोली थी मैं, हाय क्या थी खबर
लूटेगी यूँ मुझे उनकी नज़र
न होते मुक़ाबिल न दिल हारते हम
ये अपनी ख़ता है, ग़िला क्या करें
मेरी जाँ मेरी जाँ प्यार किसी से हो ही गया है,
हम क्या करें..हम क्या करें,,,

जिनकी निगाहों ने घायल किया
लेंगे उन्हीं से दिल की दवा
न हम मुस्कुराते न वो पास आते
उसकी मिली है हमको सज़ा, क्या करें
मेरी जाँ मेरी जाँ प्यार किसी से हो ही गया है,
हम क्या करें..हम क्या करें,,,



गाना - आँसूं की आग लेके  - Aansoon ki aaj leke    
फिल्म - यहूदी - Yahudi 
गीतकार : शहरयार   
संगीतकार : शंकर-जयकिशन  
गायक : लता मंगेशकर 


आँसू की आग लेके तेरी याद आई
जलते हुए राग लेके तेरी याद आई
शिक़वे हज़ार ले के तेरी याद आई
हाय रे कैसी जुदाई...

रोता है गुँचा-गुँचा आँगन उदास है
अब दिल की आरज़ू को जलवों की प्यास है
आँसू की आग लेके तेरी याद आई
जलते हुए राग लेके तेरी याद आई

दोनों जहान तेरी चाहत में छोड़ दूँ
प्यार का नाज़ुक रिश्ता कैसे मैं तोड़ दूँ
आँसू की आग लेके तेरी याद आई
जलते हुए राग लेके तेरी याद आई