तू पढ़ती है मेरी पुस्तक / गोपाल सिंह नेपाली



तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ


मै खुली क़लम का जादूगर, तू बंद क़िताब कहानी की
मैं हँसी-ख़ुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की
तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।


तू मन के भाव मिलाती है, मेरी कविता के भावों से
मैं अपने भाव मिलाता हूँ, तेरी पलकों की छाँवों से
तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।


तू पृष्ठ-पृष्ठ से खेल रही, मैं पृष्ठों से आगे-आगे
तू व्यर्थ अर्थ में उलझ रही, मेरी चुप्पी उत्तर माँगे
तू ढाल बनाती पुस्तक को, मैं अपने मन से लड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।


तू छंदों के द्वारा जाने, मेरी उमंग के रंग-ढंग
मैं तेरी आँखों से देखूँ, अपने भविष्य का रूप-रंग
तू मन-मन मुझे बुलाती है, मैं नयना-नयना मुड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।


मेरी कविता के दर्पण में, जो कुछ है तेरी परछाईं
कोने में मेरा नाम छपा, तू सारी पुस्तक में छाई
देवता समझती तू मुझको, मैं तेरे पैयां पड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तेरी बातों की रिमझिम से, कानों में मिसरी घुलती है
मेरी तो पुस्तक बंद हुई, अब तेरी पुस्तक खुलती है
तू मेरे जीवन में आई, मैं जग से आज बिछड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।


मेरे जीवन में फूल-फूल, तेरे मन में कलियाँ-कलियाँ
रेशमी शरम में सिमट चलीं, रंगीन रात की रंगरलियाँ
चंदा डूबे, सूरज डूबे, प्राणों से प्यार जकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

मार प्यार की थापें - केदारनाथ अग्रवाल

1

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
मायावी मेघों ने सिर का सूरज काट लिया;
गजयूथों ने आसमान का आँगन पाट दिया;
फिर से असगुन भाख रही रजकिन।

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
दूध-दही की गोरी ग्वालिन डरकर भाग गई;
रूप-रूपहली धूप धरा को तत्क्षण त्याग गई;
हुड़क रही अब बगुला को बगुलिन!

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
बड़े-बड़े बादल के योद्धा बरछी मार रहे;
पानी-पवन-प्रलय के रण का दृश्य उभार रहे;
तड़प रही अब मुँह बाए बाघिन।


2.

चुप है पेड़
और चुप है
पेड़ की बाँह पर बैठी
चिड़िया।

चुप्पी पर्याय नहीं होती
बसन्त का फूल-मौसम
बुलाने के लिए।


फिर भी
खुश है
अपत पेड़
कि बाँह पर बैठी चिड़िया
उससे अधिक
जानदार है-

उसी से उसको प्यार है।


3.

सभी तो जीते हैं
जमीन
जहान
मकान
दुकान
और संविधान की
जिन्दगी,
अपने लिए-
साम्पत्तिक सम्बंधों के लिए-
राजनीतिक
दाँवपेंच की
धोखाधड़ी में।

सभी तो हो गए हैं
शतरंज की बिछी बिसात में
खड़े कर दिए गए मोहरे,
जो,
खुद तो नहीं-
खेलाड़ियों के चलाए चलते हैं
हार-जीत के लिए।

मोहरे पीटते हैं
मोहरों को;
खेलाड़ी नहीं पीटते
खेलाड़ियों को।


मोहरे पिटते हैं
मोहरों से;
खेलाड़ी नहीं पिटते
खेलाड़ियों से।


खेलते-खेलते खेल
लोग
जिंदगी जीते हैं-
मात देते-
मात खाते;
कभी मीठे-
कभी कड़ुवे घूँट पीते।


4.

‘मैं’
सिर्फ ‘मैं’ नहीं है इस ‘मैं’ में;
तमाम-तमाम लोग हैं दुनिया भरके
इस ‘मैं’ में।
यही है मेरा ‘मैं’-
प्राण से प्यारा ‘मैं’;
यही जीता है मुझे;
इसी को जीता हूँ मैं;
यही जीता है दुनिया को,-
दुनिया के
तमाम-तमाम लोगों को;
इसी को जीती है दुनिया;
इसी को जीते हैं
दुनिया के तमाम-तमाम लोग।

यही है मेरा ‘मैं’-
प्राण से प्यारा ‘मैं’।

कुछ शेर-2

मुनव्वर राणा

खाने की चीज़ें भेजी हैं माँ ने गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज्ज़त वही रही |

--

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।

--


इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

--


मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।

--


अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।

--


जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

--


ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।



--

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

--


मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

वसीम बरेलवी

सबने मिलाए हाथ यहाँ तीरगी के साथ
कितना बड़ा मज़ाक हुआ रोशनी के साथ

--

तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का गम होगा

--

जहाँ रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा
किसी चिराग़ का अपना मकाँ नहीं होता

--

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा

--

ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

--

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा


अकबर इलाहाबादी 



जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं

--

यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं

--

ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा

--

थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा

--

मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है

--

तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है

--

जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो
औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो

हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो



फ़ानी बदायूनी

देख 'फ़ानी' वोह तेरी तदबीर की मैयत न हो।
इक जनाज़ा जा रहा है दोश पर तक़दीर के।।

--

या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर को क्या कहिए।।

--

हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।

--

तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।

--

एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।

--

है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।

--

हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।

--

बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।

--

वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।

---

याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।

--

तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।

--

अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।

--

'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।

--

नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।

--

आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?

--

नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।

--

ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।

--

महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।

--

गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।

--

फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।

--

या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?

--

दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।

हम तुझ से किस हवस की फ़लक जुस्तजू करें - ख़्वाजा मीर दर्द

क़त्ले-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
पर तेरे अहद के आगे तो ये दस्तूर न था

रात मजलिस में तेरे हुस्न के शोले के हज़ूर
शम्मअ के मुँह पे जो देखा तो कहीं नूर न था

ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
मैं जो पहुँचा तो कहा ख़ैर ये मज़कूर न था

बावजूद-ए-के परो-बाल न थे आदम के
वहाँ पहुँचा के फ़रिश्ते का भी मक़दूर न था

मुह्त्सिब आज तो मयख़ाने में तेरे हाथों
दिल न था कोई के शीशे की तरह चूर न था

दर्द के मिलने से ऐ यार बुरा क्यों माना
उसको कुछ और सिवा दीद के मंज़ूर न था

सोनाली राठोड़ ने इस ग़ज़ल को गया है... यूट्यूब पर सुनें इसे 

 ***

हम तुझ से किस हवस की फ़लक जुस्तजू करें
दिल ही नहीं रहा है जो कुछ आरजू करें

मिट जायें एक आन में कसरत नमयाँ,
हम आईने के सामने आ कर जो हू करें

तार-दामनी पे शेख़ हमारी न जाई ओ,
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वजू करें

सर ता क़दम ज़बां है जूं शमा गो कि हम,
पर ये कहाँ मजाल जो कुछ गुफ्तगू करें

हर चन्द आईना हूँ पर इतना न क़बूल,
मुँह फेर ले वो जिसके मुझे रू-ब-रू करें

न गुल को है सबात न हम को ऐतबार,
किस बात पर चमन हवस-ए-रंग- ओ-बू करें

है अपनी ये सलाह कि सब ज़ाहिदान-ए-शहर,
ऐ ‘दर्द’ आ के बेत-ए-दस्त-ए-सबू करें




है ग़लत गर गुमान में कुछ है
तुझ सिवा भी जहान में कुछ है

दिल भी तेरे ही ढंग सीखा है
आन में कुछ है, आन में कुछ है

बे-ख़बर तेग-ऐ-यार कहती है
बाकी इस नीम-जान में कुछ है

इन दिनों कुछ अजब है मेरा हाल
देखता कुछ हूँ, ध्यान में कुछ है

दर्द तो जो करे हैं जी का ज़ियाँ
फाएदा इस जियान में कुछ है





अर्ज़ ओ समाँ कहाँ तेरी वुसअत को पा सके
मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समाँ सके

वेहदत में तेरी हर्फ़ दुई का न आ सके
आईना क्या मजाल तिझे मुंह दिखा सके

मैं वो फ़तादा हूँ कि बग़ैर अज़ फ़ना मुझे
नक़्श ए क़दम की तरहा न कोई उठा सके

क़ासिद नहीं ये काम तेरा अपनी राह ले
उस का प्याम दिल के सिवा कौन ला सके

ग़ाफ़िल खुदा की याद पे मत भूल ज़ीन्हार
अपने तईं भुला से अगर तू भुला सके

यारब ये क्या तिलिस्म है इद्राक ओ फ़ेहम याँ
दौड़े हज़ार,आप से बाहर न जा सके

गो बहस करके बात बिठाई प क्या हुसूल
दिल सा उठा ग़िलाफ़ अगर तू उठा सके

इतफ़ा-ए-नार-ए-इश्क़ न हो आब-ए-अश्क से
ये आग वो नहीं जिसे पानी बुझा सके

मस्त-ए-शराब-ए-इश्क़ वो बेखुद है जिसको हश्र
ऐ दर्द चाहे लाये बखुद पर न ला सके

कह-मुकरियाँ(२) - आमिर खुसरो और भारतेन्दु हरिश्चंद्र

कुछ और कह-मुकरियाँ  आमिर खुसरो की...


१. अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चंद!

२. शोभा सदा बढ़ावन हारा
आँखिन से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनरंजन
ऐ सखि साजन? ना सखि अंजन!

३. जीवन सब जग जासों कहै
वा बिनु नेक न धीरज रहै
हरै छिनक में हिय की पीर
ऐ सखि साजन? ना सखि नीर!

४. बिन आये सबहीं सुख भूले
आये ते अँग-अँग सब फूले
सीरी भई लगावत छाती
ऐ सखि साजन? ना सखि पाती!

५. सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखि साजन? ना सखि हार!

६. पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन? ना सखि बुखार!

७. सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना
ऐ सखि साजन? ना सखि सपना!

८. बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम
ऐ सखि साजन? ना सखि राम!

९. सरब सलोना सब गुन नीका
वा बिन सब जग लागे फीका
वा के सर पर होवे कोन
ऐ सखि ‘साजन’ना सखि! लोन(नमक)

१०. सगरी रैन मिही संग जागा
भोर भई तब बिछुड़न लागा
उसके बिछुड़त फाटे हिया’
ए सखि ‘साजन’ ना, सखि! दिया(

११राह चलत मोरा अंचरा गहे।
मेरी सुने न अपनी कहे
ना कुछ मोसे झगडा-टंटा
ऐ सखि साजन ना सखि कांटा

१२.बरसा-बरस वह देस में आवे,
मुँह से मुँह लाग रस प्यावे।
वा खातिर मैं खरचे दाम,
ऐ सखि साजन न सखि! आम

१३नित मेरे घर आवत है,
रात गए फिर जावत है।
मानस फसत काऊ के फंदा,
ऐ सखि साजन न सखि! चंदा

१४.
आठ प्रहर मेरे संग रहे,
मीठी प्यारी बातें करे
श्याम बरन और राती नैंना,
ऐ सखि साजन न सखि! मैंना

१५.घर आवे मुख घेरे-फेरे,
दें दुहाई मन को हरें,
कभू करत है मीठे बैन,
कभी करत है रुखे नैंन
ऐसा जग में कोऊ होता,
ऐ सखि साजन न सखि! तोता

साथ ही कुछ और कह मुकरियां, भारतेन्दु जी की 



१ 
रूप दिखावत सरबस लूटै
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै
कपट कटारी जिय मैं हुलिस
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि पुलिस!

२.
एक गरभ मैं सौ सौ पूत
जनमावै ऐसा मजबूत
करै खटाखट काम सयाना
का सखि साजन ? नहिं छापाखाना!

३.
सतएँ अठएँ मों घर आवै
तरह तरह की बात सुनावै
घर बैठे ही जोड़ै तार
क्यों सखि सजन ? नहिं अखबार!


नई नई नित तान सुनावै
अपने जाल मैं जगत फँसावै
नित नित हमैं करै बल-सून
क्यों सखि साजन ? नहिं कानून!

५.
लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै
देस देस डोलै सजि साज
क्यों सखि साजन ? नहीं जहाज!

कह-मुकरियाँ - अमीर खुसरो और भारतेन्दु हरिश्चंद्र

कह मुकरी एक प्रकार की कविता है. यह असल में दो सखियों के बीच का संवाद है. कह मुकरी  का अर्थ है कुछ कहकर उससे मुकर जाना.  कह मुकरी कविता की विधा की शुरुआत आमिर खुसरो ने की थी.  इस कविता में शुरुआत की पंक्ति में कही हुई बात से मुकरकर अंत में कुछ दूसरा ही अर्थ निकलता है. आज आईये पढ़ते हैं आमिर खुसरो की ही कुछ कह-मुकरियाँ.


१. खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन?
ना सखि कुत्ता!

२. लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा!

३. रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि तारा!

४. नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि जूता!

५. ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चांद!

६. जब माँगू तब जल भरि लावे
मेरे मन की तपन बुझावे
मन का भारी तन का छोटा
ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा!

७. वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल!

८. बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी!

९. अति सुरंग है रंग रंगीले
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन? ना सखि तोता!

१०. आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन? ना सखि पंखा!


खुसरो के अलावा भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने भी कह-मुकरियाँ लिखी हैं. उनकी भी देखिये कुछ कह-मुकरियाँ. 

भीतर भीतर सब रस चूसै
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै
जाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेज!



सब गुरुजन को बुरो बतावै
अपनी खिचड़ी अलग पकावै
भीतर तत्व नहिं, झूठी तेजी
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेजी!


तीन बुलाए तेरह आवैं
निज निज बिपता रोइ सुनावैं
आँखौ फूटी भरा न पेट
क्यों सखि साजन ? नहिं ग्रैजुएट!


मुँह जब लागै तब नहिं छूटै
जाति मान धरम धन लूटै
पागल करि मोहिं करे खराब
क्यों सखि साजन ? नहिं शराब!


सीटी देकर पास बुलावै
रुपया ले तो निकट बिठावै
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि रेल!


धन लेकर कछु काम न आवै
ऊँची नीची राह दिखावै
समय पड़े पर सीधै गुंगी
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि चुंगी!


मतलब ही की बोलै बात
राखै सदा काम की घात
डोले पहिने सुंदर समला
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि अमला!


सुंदर बानी कहि समुझावैं
बिधवागन सों नेह बढ़ावैं
दयानिधान परम गुन-आगर
क्यों सखि साजन ? नहिं विद्यासागर!

पहेलियाँ - अमीर खुसरो

१.
तरवर से इक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया
बाप का उससे नाम जो पूछा आधा नाम बताया
आधा नाम पिता पर प्यारा बूझ पहेली मोरी
अमीर ख़ुसरो यूँ कहेम अपना नाम नबोली

उत्तर—निम्बोली

२.फ़ारसी बोली आईना,
तुर्की सोच न पाईना
हिन्दी बोलते आरसी,
आए मुँह देखे जो उसे बताए

उत्तर—दर्पण

३.बीसों का सर काट लिया
ना मारा ना ख़ून किया

उत्तर—नाखून

४.एक गुनी ने ये गुन कीना, हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखो जादूगर का कमाल, डारे हरा निकाले लाल।।
उत्तर—पान

५. एक परख है सुंदर मूरत, जो देखे वो उसी की सूरत।
फिक्र पहेली पायी ना, बोझन लागा आयी ना।।
उत्तर—आईना

६.बाला था जब सबको भाया, बड़ा हुआ कुछ काम न आया।
खुसरो कह दिया उसका नाँव, अर्थ कहो नहीं छाड़ो गाँव।।
उत्तर—दिया

७.घूम घुमेला लहँगा पहिने,
एक पाँव से रहे खड़ी
आठ हात हैं उस नारी के,
सूरत उसकी लगे परी ।
सब कोई उसकी चाह करे है,
मुसलमान हिन्दू छत्री ।
खुसरो ने यह कही पहेली,
दिल में अपने सोच जरी ।
उत्तर - छतरी

८.खडा भी लोटा पडा पडा भी लोटा।
है बैठा और कहे हैं लोटा।
खुसरो कहे समझ का टोटा॥
उत्तर - लोटा

९.घूस घुमेला लहँगा पहिने, एक पाँव से रहे खडी।
आठ हाथ हैं उस नारी के, सूरत उसकी लगे परी।
सब कोई उसकी चाह करे, मुसलमान, हिंदू छतरी।
खुसरो ने यही कही पहेली, दिल में अपने सोच जरी।
उत्तर - छतरी

१०.आदि कटे से सबको पारे। मध्य कटे से सबको मारे।
अन्त कटे से सबको मीठा। खुसरो वाको ऑंखो दीठा॥
उत्तर - काजल

११.एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे॥
उत्तर - आकाश

१२.एक नार ने अचरज किया। साँप मार पिंजरे में दिया।
ज्यों-ज्यों साँप ताल को खाए। सूखै ताल साँप मरि जाए॥
उत्तर - दीये की बत्ती

१३.एक नारि के हैं दो बालक, दोनों एकहिं रंग।
एक फिरे एक ठाढ रहे, फिर भी दोनों संग॥
उत्तर - चक्की

१४.खेत में उपजे सब कोई खाय।
घर में होवे घर खा जाय॥
उत्तर - फूट

15.गोल मटोल और छोटा-मोटा,
हर दम वह तो जमीं पर लोटा।
खुसरो कहे नहीं है झूठा,
जो न बूझे अकिल का खोटा।।
उत्तर - लोटा।

16. श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसे नारी।
दोनों हाथ से खुसरो खींचे और कहे तू आ री।।
उत्तर - आरी

17.हाड़ की देही उज् रंग, लिपटा रहे नारी के संग।
चोरी की ना खून किया वाका सर क्यों काट लिया।
उत्तर - नाखून।

18. बाला था जब सबको भाया, बड़ा हुआ कुछ काम न आया।
खुसरो कह दिया उसका नाव, अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।

उत्तर - दिया।


19.नारी से तू नर भई और श्याम बरन भई सोय।
गली-गली कूकत फिरे कोइलो-कोइलो लोय।।

उत्तर - कोयल।

20.एक नार तरवर से उतरी, सर पर वाके पांव
ऐसी नार कुनार को, मैं ना देखन जाँव।।

उत्तर - मैंना।

कुछ अशआर नज़र लखनवी के


अभी मरना बहुत दुश्वार है ग़म की कशाकश से
अदा हो जायेगा यह फ़र्ज़ बी फ़ुरसत अगर होगी

मुआफ़ ऐ हमनशीं! गर आह कोई लब पै आ जाए
तबीयत रफ़्ता-रफ़्ता ख़ूगरे-दर्दे-जिगर होगी

***


कोई मुझ सा मुस्तहके़-रहमो-ग़मख़्वारी नहीं
सौ मरज़ है और बज़ाहिर कोई बीमारी नहीं

इश्क़ की नाकामियों ने इस तरह खींचा है तूल
मेरे ग़मख़्वारों को अब चाराये-ग़मख़्वारी नहीं

***

सुन लो कि रंगे-महफ़िल कुछ मौतबर नहीं है
है इक ज़बान गोया, शमये-सहर नहीं है

मुद्दत से ढूंढ़ता हूँ मिलता मगर नहीं है
वो इक सकूने-ख़ातिर जो बेश्तर नहीं है


***


मेरी सूरत देखकर क्यों तुमने ठंड़ी साँस ली?
बेकसों पर रहम---आईने-सितमगारी नहीं

हर तरफ़ से यह सदा आती है मुल्के-हुस्न में
"यह वो दुनिया है जहाँ रस्मे-वफ़ादारी नहीं


***


सिवादे-शामे-ग़म से रूह थर्राती है क़ालिब में
नहीं मालूम क्या होगा, जो इस शब की सहर होगी

क़फ़स से छूटकर पहुँचे न हम, दीवारे-गुलशन तक
रसाई आशियाँ तक किस तरह बेबालो-पर होगी

फ़क़त इक साँस बाक़ी है, मरीज़े-हिज्र के तन में
ये काँटा भी निकल जाये तो राहत से बसर होगी

बेस्ट ऑफ़ ग़ज़ल - दाग देहलवी

आफत की शोख़ियां है तुम्हारी निगाह में - फरीदा ख़ानुम

आफत की शोख़ियां है तुम्हारी निगाह में
मेहशर के फितने खेलते हैं जल्वा-गाह में..

वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी कि निगाह में..

आती है बात बात मुझे याद बार बार
कहता हूं दोड़ दोड़ के कासिद से राह में..

इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस कदर
जो टूट कर शरीक हूँ हाल-ए-तबाह में

मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमंद थे
ऐ दाग़ तुम तो बैठ गये एक आह में...




ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा - आबिदा परवीन 

ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा

अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा

तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है
किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा

आरज़ू ही न रही सुबहे-वतन की मुझको
शामे-गुरबत है अजब वक़्त सुहाना तेरा

ये समझकर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा

ऐ दिले शेफ़्ता में आग लगाने वाले
रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा

तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासहे नादाँ मेरा
क्या ख़ता की जो कहा मैंने न माना तेरा

रंज क्या वस्ले अदू का जो तअल्लुक़ ही नहीं
मुझको वल्लाह हँसाता है रुलाना तेरा

क़ाबा-ओ-दैर में या चश्मो-दिले-आशिक़ में
इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा


तर्के आदत से मुझे नींद नहीं आने की
कहीं नीचा न हो ऐ गौर सिरहाना तेरा

मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंजेफ़िराक़
वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेरा

बज़्मे दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा

अपनी आँखों में अभी कून्द गई बिजली- सी
हम न समझे के ये आना है या जाना तेरा

यूँ वो क्या आएगा फ़र्ते नज़ाकत से यहाँ
सख्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा

दाग़ को यूँ वो मिटाते हैं, ये फ़रमाते हैं
तू बदल डाल, हुआ नाम पुराना तेरा




रंज की जब गुफ्तगू होने लगी - गुलाम अली 

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी

चाहिए पैग़ामबर दोने तरफ़
लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी

मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई
उनकी शोहरत की क़ू-ब-कू़ होने लगी

नाजि़र बढ़ गई है इस क़दर
आरजू की आरजू होने लगी

अब तो मिल कर देखिए क्या रंग हो
फिर हमारी जुस्तजू होने लगी

'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आप
शायद उनकी आबरू होने लगी




दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने - जगजीत सिंह 

दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने
क्यों है ऐसा उदास क्या जाने

कह दिया मैं ने हाल-ए-दिल अपना
इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने

जानते जानते ही जानेगा
मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने

तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा
जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने




अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता - तलत अज़ीज़ 

अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता

ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता

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उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं  - मेहदी हसन 

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते भी नहीं

मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं

सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही
नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नहीं

क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं

ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते भी नहीं

देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं

हो चुका तर्के तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं

रहस्यवाद - अज्ञेय

रहस्यवाद - १ 

मैं भी एक प्रवाह में हूँ-
लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है,
मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ-
अभिभूत होना चाहता हूँ-

जो मेरे भीतर है।
शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक अणु हूँ,
मैं भी असीम हूँ।
एक असीम बूँद असीम समुद्र को अपने भीतर प्रतिबिम्बित करती है,

एक असीम अणु इस असीम शक्ति को जो उसे प्रेरित करती है
अपने भीतर समा लेना चाहता है,
उस की रहस्यामयता का परदा खोल कर उस में मिल जाना चाहता है-
यही मेरा रहस्यवाद है।

रहस्यवाद - २ 


लेकिन जान लेना तो अलग हो जाना है, बिना विभेद के ज्ञान कहाँ है?
और मिलना है भूल जाना,
जिज्ञासा की झिल्ली को फाड़ कर स्वीकृति के रस में डूब जाना,
जान लेने की इच्छा को भी मिटा देना,
मेरी माँग स्वयं अपना खंडन है क्योंकि वह माँग है,
दान नहीं है।

रहस्यवाद - ३ 

असीम का नंगापन ही सीमा है
रहस्यमयता वह आवरण है जिस से ढँक कर हम उसे
असीम बना देते हैं।
ज्ञान कहता है कि जो आवृत है, उस से मिलन नहीं हो सकता,
यद्यपि मिलन अनुभूति का क्षेत्र है,

अनुभूति कहती है कि जो नंगा है वह सुन्दर नहीं है,
यद्यपि सौन्दर्य-बोध ज्ञान का क्षेत्र है।
मैं इस पहेली को हल नहीं कर पाया हूँ, यद्यपि मैं रहस्यवादी हूँ,
क्या इसीलिए मैं केवल एक अणु हूँ
और जो मेरे आगे है वह एक असीम?

घर - अज्ञेय

घर - १ 

मेरा घर
दो दरवाज़ों को जोड़ता एक घेरा है
मेरा घर
दो दरवाज़ों के बीच है
उसमें किधर से भी झाँको
तुम दरवाज़े से बाहर देख रहे होगे
तुम्हें पार का दृश्य दीख जाएगा
घर नहीं दीखेगा

घर - २ 

तुम्हारा घर
वहाँ है
जहाँ सड़क समाप्त होती है
पर मुझे जब
सड़क पर चलते ही जाना है
तब वह समाप्त कहाँ होती है ?
तुम्हारा घर....

घर - ३ 

दूसरों के घर
भीतर की ओर खुलते हैं
रहस्यों की ओर
जिन रहस्यों को वे खोलते नहीं
शहरों में होते हैं
दूसरों के घर दूसरे के घरों में
दूसरों के घर
दूसरों के घर हैं

घर - ४ 


घर
हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं
घर की बातें
सबकी अपनी हैं
घर की बातें
कोई किसी से नहीं करता
जिनकी बातें होती हैं
वे घर नहीं हैं

घर - ५ 


घर
मेरा कोई है नहीं
घर मुझे चाहिए
घर के भीतर प्रकाश हो
इसकी भी मुझे चिंता नहीं है
प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो
इसी की मुझे तलाश है
ऐसा कोई घर आपने देखा है ?
देखा हो
तो मुझे भी उसका पता दें
न देखा हो
तो मैं आपको भी
सहानुभूति तो दे ही सकता हूँ
मानव होकर भी हम-आप
अब ऐसे घरों में नहीं रह सकते
जो प्रकाश के घेरे में हैं
पर हम
बेघरों की परस्पर हमदर्दी के
घेरे में तो रह ही सकते हैं

ये इश्क नहीं आसाँ - जिगर मुरादाबादी


इक लफ्जे-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है - आबिदा परवीन 

इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है
आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है





हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं - बेगम अख्तर 

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
मेरे जुबां पे शिकवए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
यारब हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवए -दैरो-हरम नहीं
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही, मगर इतना अहम् नहीं



वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना - बेगम अख्तर 

वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़तह कर ले, वही फ़ातहेज़माना॥
कभी हुस्न की तबीयत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़े-बेनियाज़ी वही शाने-ख़ुसरवाना॥
मैं हूँ उस मुक़ाम पर अब कि फ़िराक़ोवस्ल कैसे?
मेरा इश्क़ भी कहानी, तेरा हुस्न भी फ़साना॥
तेरे इश्क़ की करामत यह अगर नहीं तो क्या है।
कभी बेअदब न गुज़रा, मेरे पास से ज़माना॥
मेरे हमसफ़ीर बुलबुल! मेरा-तेरा साथ ही क्या?
मैं ज़मीरे-दश्तोदरिया तू असीरे-आशियाना॥
तुझे ऐ ‘जिगर’! हुआ क्या कि बहुत दिनों से प्यारे।
न बयाने-इश्को़-मस्ती न हदीसे-दिलबराना॥

रात यूँ दिल में तेरी खोयी हुई याद आयी - नुसरत फ़तेह अली खान

शायर - फैज़ अहमद फैज़ 

रात यूँ दिल में तेरी खोयी हुई याद आयी
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये
जैसे सहराओं में हौले से चले बादे-नसीम 
जैसे बीमार को बे-वजह करार आ जाए 

कितनी बदल गए हैं वो हालात की तरह 
जब भी मिले हैं पहली मुलाकात की तरह 
तेरी ज़फ़ा कहूं या इनायत कहूं इसे 
गम भी मिला मुझे किसी सौगात की तरह

दिल में ग़मों की आग भड़कने लगी तो हम 
रोये हैं फूट फूट के बरसात की तरह 
हम क्या किसी के हुस्न का सदका उतारते 
एक ज़िन्दगी मिली है वो खैरात की तरह 

बुझी हुई शम्मा का धुंआ हूँ 
और अपने मर्कज को जा रहा हूँ
कि दिल की हसरत तो मिट चुकी है 
अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ 

तेरी ही सूरत के देखने को 
बुतों की तस्वीरें ला रहा हूँ 
कि खूबियाँ सब की ज़मा कर के 
तेरा तसव्वुर जमा रहा हूँ 

कफ़न में खुद को छुपा लिया है 
के तुझको पर्दे की हो न ज़हमत 
नकाब अपने लिए बना कर 
हिजाब तेरा उठा रहा हूँ 

उधर वो घर से निकल पड़े हैं
इधर मेरा दम निकल रहा है 
इलाही कैसी है ये क़यामत 
वो आ रहे हैं मैं जा रहा हूँ

मोहब्बत इंसान की है फितरत 
कहाँ है इमकाम-ए-तर्क-ए-उल्फत 
वो और भी याद आ रहे हैं
मैं उनको जितना भुला रहा हूँ 

रोज़ कहता हूँ भूल जाऊं उन्हें 
रोज़ ये बात भूल जाता हूँ 
नहीं आती तो उनकी याद 
बरसो तक नहीं आती 
मगर जब याद आते हैं 
तो अक्सर याद आते हैं 

..