आज मकर संक्रांति के मौके पर आपको सुनाते हैं सलिल वर्मा की लिखी कविता "मकर संक्रांति", जो उन्होंने साल 2002 में अपने दुबई प्रवास के समय लिखी थी. शायद घर से बहार रह रहे सभी लोगो के मन का हाल बयां करती है यह कविता.
सूरज ने मकर राशि में दाखिल होकर
मकर संक्रांति के आने की दी खबर
ईंटों के शहर में
आज बहुत याद आया अपना घर.
गन्ने के रस के उबाल से फैलती हर तरफ
सोंधी-सोंधी वो गुड की वो महँक
कूटे जाते हुए तिल का वो संगीत
साथ देते बेसुरे कंठों का वो सुरीला गीत.
गंगा स्नान और खिचड़ी का वो स्वाद,
रंगीन पतंगों से भरा आकाश
जोश भरी "वोक्काटा" की गूँज
सर्दियों को अलविदा कहने की धूम.
अब तुम्हारा साथ ही त्यौहार जैसा लगता है
तुम्हारे आँखों की चमक दीवाली जैसी
और प्यार के रंगों में होली दिखती है
तुम्हारे गालों का वो काला तिल
जब तुम्हारे होठों के गुड की मिठास में घुलता है
वही दिन मकर-संक्रांति का होता है!
वही दिन मकर-संक्रांति का होता है!!
- सलिल वर्मा