ए माइलस्टोन - A Milestone (Jagjit Singh, Chitra Singh)

संगीत : जगजीत सिंह 
गायक : जगजीत सिंह, चित्रा सिंह 
ग़ज़ल : कतील शिफाई 



मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम,
एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम,

आंसू छलक छलक के सतायेंगे रात भर,
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम,

जब दूरियों की याद दिलों को जलायेगी,
जिस्मों को चांदनी में भिगोया करेंगे हम,

गर दे गया दगा हमें तूफ़ान भी ‘क़तील’,
साहिल पे कश्तियों को डुबोया करेंगे हम,




तेरे खुशबु मे बसे ख़त मैं जलाता कैसे,
जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाये रखा,
जिनको इक उम्र कलेजे से लगाए रखा,

जिनका हर लफ्ज़ मुझे याद था पानी की तरह,
याद थे मुझको जो पैगाम-ऐ-जुबानी की तरह,
मुझ को प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह,

तूने दुनिया की निगाहों से जो बचाकर लिखे,
सालाहा-साल मेरे नाम बराबर लिखे,
कभी दिन में तो कभी रात में उठकर लिखे,

तेरे खुशबु मे बसे ख़त मैं जलाता कैसे,
प्यार मे डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे,
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे,

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ,







अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको

ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ ‘क़तील’
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको






परेशाँ रात सारी है, सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूते मर्ग तारी है, सितारों तुम तो सो जाओ


हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही किस्मत हमारी है, सितारों तुम तो सो जाओ

हमें भी नींद आ जाएगी, हम भी सो जाऐंगे
अभी कुछ बेक़रारी है, सितारों तुम तो सो जाओ



ये मोजेज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे
के सँग तुझपे गिरे और ज़ख्म आये मुझे

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूँ नहीं करता
वो बद-गुमाँ है तो सौ बार आज़माये मुझे

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँन को मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ ‘क़तील’
ग़मे हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे




दिल को ग़मे हयात गवारा है इन दिनों
पहले जो दर्द था वही चारा है इन दिनों

ये दिल, ज़रा सा दिल तेरी यादों में खो गया है
ज़र्रे को आँन्धियों का सहारा है इन दिनों

तुम आ ना सको तो शब को बढ़ा दूँ कुछ और भी
अपने कहे में सुब्ह का तारा है इन दिनों



तुम्हारी अन्जुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबिस्ता हुये तुम से वो अफसाने कहाँ जाते

निकल करा दैरो काबा से अगर मिलता ना मैख़ाना
तो ठुकराये हुये इन्सान ख़ुदा जाने कहाँ जाते

तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमानें कहाँ जाते

चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानग़ी अपनी
वगरना हम जमाने भर को समझाने कहाँ जाते




सदमा तो है मुझे भी के तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ के अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पड़ा है तेरे घर में तेरा वजूद
बेकार महफिलों में तुझे ढूँडता हूँ मैं

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक़ ऐ मेरे रक़ीब
दो-चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं




अँगड़ाई पर अँगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो तुम क्या जानों बात मेरी तन्हाई की

कौन सियाही घोल रहा था वक्त के बहते दरिया में
मैनें आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की

वस्ल की रात ने जाने क्यूँ इसरार था उनको जाने पर
वक्त से पहले डूब गये, तारों ने बड़ी दानाई की

उड़ते उड़ते आस का पँछी दूर उफ़क़ में डूब गया
रोते रोते बैठ गयी आवाज़ किसी सौदाई की

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