सूर्य का स्वागत- दुष्यंत कुमार


परदे हटाकर करीने से रोशनदान खोलकर कमरे का फर्नीचर सजाकर और स्वागत के शब्दों को तोलकर टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ और देखता रहता हूँ मैं। सड़कों पर धूप चिलचिलाती है चिड़िया तक दिखाई नही देती पिघले तारकोल में हवा तक चिपक जाती है बहती बहती, किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से एक शब्द नही कहता हूँ मैं। सिर्फ कल्पनाओं से सूखी और बंजर जमीन को खरोंचता हूँ जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में उनके बारे में सोचता हूँ कितनी अजीब बात है कि आज भी प्रतीक्षा सहता हूँ।

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