असरार उल हक ’मजाज़ - उर्दू शायरी का ‘कीट्स

सब का तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके
सब के तो गिरेबाँ सी डाले अपना ही गिरेबाँ भूल गए
-मजाज़ 
मजाज़ को तरक्की पसन्द तहरीक और इन्कलाबी शायर भी कहा जाता है. महज 44 साल की छोटी सी उम्र में उर्दू साहित्य के ’कीट्स’ कहे जाने वाले असरार उल हक ’मजाज़’ इस जहाँ से कूच करने से पहले वे अपनी उम्र से बड़ी रचनाओं की सौगात उर्दू अदब़ को दे गए शायद मजाज़ को इसलिये उर्दू शायरी का ‘कीट्स’ कहा जाता है, क्योंकि उनके पास अहसास-ए-इश्क व्यक्त करने का बेहतरीन लहजा़ था.

मजाज की ज़िन्दगी एक अधूरी ग़ज़ल थी. उनकी शायरी का सारा हुस्न उसके अधूरेपन में है. सन १९३० के आसपास शायरी के उफुक पर एक खूबसूरत सितारा जगमगाया..लोगों ने हैरत और मसर्रत से उसकी तरफ देखा..लेकिन देखते ही देखते वो आसमान पर चांदी की एक लकीर बनता हुआ गुज़र गया. मजाज तमाम उम्र अपने ज़ख्मों से खेलते रहे. अपने ग़मों को शायरी में ढालते रहे..उनके बुजुर्गों में एक सूफी शायर थे, उस्मान हारून, उनकी शायरी की गर्मी मजाज़ की शायरी में महसूस की जा सकती है.

आज से पूरे दो सप्ताह सुनिए असरार उल हक ’मजाज़’ की शायरी/ नज्में.  आज उनकी एक मशहूर ग़ज़ल से शुरुआत करती हूँ., उनका तार्रुफ़ करवाती खुद उनकी ये ग़ज़ल 'तार्रुफ़'.


ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं,
जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं

इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी,
फ़ित्नः-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं

ख़्वाब-ए-इशरत में है अरबाब-ए-ख़िरद,
और इक शायर-ए-बेदार हूँ मैं

छेड़ती हैं जिसे मिज़राब-ए-अलम,
साज़-ए-फ़ितरत वही तार हूँ मैं

रंग-ए-नज़ारा-ए-कुदरत मुझसे,
जान-ए-रंगीनी-ए-कुहसार हूँ मैं

नश्शः-ए-नरगिस-ए-ख़ूबां मुझसे,
ग़ाज़ः-ए-आरिज़-ओ-रूख़सार हूँ मैं

ऐब, जो हाफ़िज-ओ-ख़य्याम में था,
हाँ कुछ उसका भी गुनहगार हूँ मैं

ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम,
ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं

रश्क-ए-सद होश है मस्ती मेरी,
ऐसी मस्ती है कि हुशियार हूँ मैं

लेके निकला हूँ गुहरहा-ए-सुख़न,
माह-ओ-अंजुम का ख़रीदार हूँ मैं

दैर-औ-काबः में मिरे ही चर्चे,
और रूसवा सर-ए-बाज़ार हूँ मैं

कुफ्र-ओ-इलहाद से नफ़रत है मुझे,
और मज़हब से भी बेज़ार हूँ मैं

अहल-ए-दुनिया के लिए नंग सही,
रौनक-ए-अंजुमन-ए-यार हूँ मैं

ऐन इस बे सर-ओ-सामानी में,
क्या ये कम है कि गुहरबार हूँ मैं

मेरी बातों में बेहयाई है,
लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं

मुझसे बरहम है मिज़ाज-ए-शेरी,
मुजरिम-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार हूँ मैं

हूर-ओ-गिलमां का यहाँ ज़िक्र नहीं,
नवा-ए-इन्सां का परस्तार हूँ मैं

महफ़िल-ए-दहर पे तारी है जुमूद,
और वारफ़्ता-ए-रफ़्तार हूँ मैं

इक लपकता हुआ शोला हूँ मैं,
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं

मजाज़ की एक और मशहूर ग़ज़ल सुनिए, यह ग़ज़ल आप जगजीत सिंह की आवाज़ में भी सुन सकते हैं. लिंक नीचे दिया गया है. 

हिजाबे फतना परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था

तेरी नीची नजर खुद तेरी अस्मत की मुहाफज है
तू इस नश्तर की तेजी आजमा लेती तो अच्छा था

यह तेरा जर्द रुख, यह खुश्क लब, यह वहम, यह वहशत
तू अपने सर से यह बादल हटा लेती तो अच्छा था

दिले मजरुह को मजरुहतर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

तेर माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था

तेरे माथे पे यह आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था

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