मार प्यार की थापें - केदारनाथ अग्रवाल

1

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
मायावी मेघों ने सिर का सूरज काट लिया;
गजयूथों ने आसमान का आँगन पाट दिया;
फिर से असगुन भाख रही रजकिन।

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
दूध-दही की गोरी ग्वालिन डरकर भाग गई;
रूप-रूपहली धूप धरा को तत्क्षण त्याग गई;
हुड़क रही अब बगुला को बगुलिन!

मैंने देखा :
यह बरखा का दिन!
बड़े-बड़े बादल के योद्धा बरछी मार रहे;
पानी-पवन-प्रलय के रण का दृश्य उभार रहे;
तड़प रही अब मुँह बाए बाघिन।


2.

चुप है पेड़
और चुप है
पेड़ की बाँह पर बैठी
चिड़िया।

चुप्पी पर्याय नहीं होती
बसन्त का फूल-मौसम
बुलाने के लिए।


फिर भी
खुश है
अपत पेड़
कि बाँह पर बैठी चिड़िया
उससे अधिक
जानदार है-

उसी से उसको प्यार है।


3.

सभी तो जीते हैं
जमीन
जहान
मकान
दुकान
और संविधान की
जिन्दगी,
अपने लिए-
साम्पत्तिक सम्बंधों के लिए-
राजनीतिक
दाँवपेंच की
धोखाधड़ी में।

सभी तो हो गए हैं
शतरंज की बिछी बिसात में
खड़े कर दिए गए मोहरे,
जो,
खुद तो नहीं-
खेलाड़ियों के चलाए चलते हैं
हार-जीत के लिए।

मोहरे पीटते हैं
मोहरों को;
खेलाड़ी नहीं पीटते
खेलाड़ियों को।


मोहरे पिटते हैं
मोहरों से;
खेलाड़ी नहीं पिटते
खेलाड़ियों से।


खेलते-खेलते खेल
लोग
जिंदगी जीते हैं-
मात देते-
मात खाते;
कभी मीठे-
कभी कड़ुवे घूँट पीते।


4.

‘मैं’
सिर्फ ‘मैं’ नहीं है इस ‘मैं’ में;
तमाम-तमाम लोग हैं दुनिया भरके
इस ‘मैं’ में।
यही है मेरा ‘मैं’-
प्राण से प्यारा ‘मैं’;
यही जीता है मुझे;
इसी को जीता हूँ मैं;
यही जीता है दुनिया को,-
दुनिया के
तमाम-तमाम लोगों को;
इसी को जीती है दुनिया;
इसी को जीते हैं
दुनिया के तमाम-तमाम लोग।

यही है मेरा ‘मैं’-
प्राण से प्यारा ‘मैं’।

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