मुनव्वर राणा
खाने की चीज़ें भेजी हैं माँ ने गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज्ज़त वही रही |
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लबों पर उसके कभी
बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।
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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
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मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।
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अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।
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जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।
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ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।
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मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।
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मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।
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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
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मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।
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अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।
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जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।
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ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।
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मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।
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मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
वसीम बरेलवी
सबने मिलाए हाथ
यहाँ तीरगी के साथ
कितना बड़ा मज़ाक
हुआ रोशनी के साथ
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तुझे पाने की
कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर
जाए तो अब मिलने का गम होगा
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जहाँ रहेगा वहीं
रोशनी लुटाएगा
किसी चिराग़ का
अपना मकाँ नहीं होता
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मैं उसका हो नहीं
सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा
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ख़ुली छतों के दिये
कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
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मुझ को चलने दो अकेला
है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
अकबर इलाहाबादी
जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं
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यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं
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ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा
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थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
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मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है
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तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है
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जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो
औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो
हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो
फ़ानी बदायूनी
देख 'फ़ानी' वोह तेरी तदबीर की मैयत न हो।
इक जनाज़ा जा रहा है दोश पर तक़दीर के।।
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रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
अकबर इलाहाबादी
जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं
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यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं
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ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा
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थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
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मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है
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तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है
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जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो
औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो
हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो
फ़ानी बदायूनी
देख 'फ़ानी' वोह तेरी तदबीर की मैयत न हो।
इक जनाज़ा जा रहा है दोश पर तक़दीर के।।
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या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर को क्या कहिए।।
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हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।
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तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
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एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।
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है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।
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राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।
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हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।
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बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।
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यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।
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वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।
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याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।
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तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।
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जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।
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अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।
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'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।
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कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।
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नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।
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आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?
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नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।
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क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।
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ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।
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महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।
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गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।
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चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।
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फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।
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या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?
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दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।
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