एल्बम - कहकशां
ग़ज़ल - चुपके चुपके रात दिन
गायक - जगजीत सिंह
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है,
बाहज़ारां इज़्तिराब-ओ-सदहज़ारां इश्तियाक,
तुझसे वो पहले पहल दिल का लगाना याद है,
तुझसे मिलते ही वो कुछ बेबाक हो जाना मेरा,
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है,
खींच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफ़्फ़ातन,
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छिपाना याद है,
जानकर सोता तुझे वो क़सा-ए-पाबोसी मेरा,
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है,
तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़राह-ए-लिहाज़,
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है,
जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना ना था,
सच कहो क्या तुम को भी वो कारखाना याद है,
ग़ैर की नज़रों से बचकर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़,
वो तेरा चोरीछिपे रातों को आना याद है,
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़,
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है,
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये,
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है,
देखना मुझको जो बर्गश्ता तो सौ सौ नाज़ से,
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है,
चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह,
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है,
बेरुख़ी के साथ सुनाना दर्द-ए-दिल की दास्तां,
और तेरा हाथों में वो कंगन घुमाना याद है,
वक़्त-ए-रुख़सत अलविदा का लफ़्ज़ कहने के लिये,
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है,
बावजूद-ए-इद्दा-ए-इत्तक़ा ‘हसरत’ मुझे,
आज तक अहद-ए-हवस का ये फ़साना याद है,
ग़ज़ल - तोड़कर अहद-ए-करम नाआशना हो जाइये,
गायक - जगजीत सिंह
तोड़कर अहद-ए-करम नाआशना हो जाइये,
बंदापरवर जाइये अच्छा ख़फ़ा हो जाइये,
राह में मिलिये कभी मुझ से तो अज़राह-ए-सितम,
होंठ अपने काटकर फ़ौरन जुदा हो जाइये,
जी में आता है के उस शोख़-ए-तग़ाफ़ुल केश से,
अब ना मिलिये फिर कभी और बेवफ़ा हो जाइये,
हाये रे बेइख़्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर,
उस सरापानाज़ से क्यूंकर ख़फ़ा हो जाइये,
ग़ज़ल - चुपके चुपके रात दिन
गायक - जगजीत सिंह
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है,
बाहज़ारां इज़्तिराब-ओ-सदहज़ारां इश्तियाक,
तुझसे वो पहले पहल दिल का लगाना याद है,
तुझसे मिलते ही वो कुछ बेबाक हो जाना मेरा,
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है,
खींच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफ़्फ़ातन,
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छिपाना याद है,
जानकर सोता तुझे वो क़सा-ए-पाबोसी मेरा,
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है,
तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़राह-ए-लिहाज़,
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है,
जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना ना था,
सच कहो क्या तुम को भी वो कारखाना याद है,
ग़ैर की नज़रों से बचकर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़,
वो तेरा चोरीछिपे रातों को आना याद है,
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़,
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है,
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये,
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है,
देखना मुझको जो बर्गश्ता तो सौ सौ नाज़ से,
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है,
चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह,
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है,
बेरुख़ी के साथ सुनाना दर्द-ए-दिल की दास्तां,
और तेरा हाथों में वो कंगन घुमाना याद है,
वक़्त-ए-रुख़सत अलविदा का लफ़्ज़ कहने के लिये,
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है,
बावजूद-ए-इद्दा-ए-इत्तक़ा ‘हसरत’ मुझे,
आज तक अहद-ए-हवस का ये फ़साना याद है,
ग़ज़ल - तोड़कर अहद-ए-करम नाआशना हो जाइये,
गायक - जगजीत सिंह
तोड़कर अहद-ए-करम नाआशना हो जाइये,
बंदापरवर जाइये अच्छा ख़फ़ा हो जाइये,
राह में मिलिये कभी मुझ से तो अज़राह-ए-सितम,
होंठ अपने काटकर फ़ौरन जुदा हो जाइये,
जी में आता है के उस शोख़-ए-तग़ाफ़ुल केश से,
अब ना मिलिये फिर कभी और बेवफ़ा हो जाइये,
हाये रे बेइख़्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर,
उस सरापानाज़ से क्यूंकर ख़फ़ा हो जाइये,
ग़ज़ल - रोशन जमाल-ए-यार से है अन्जुमन तमाम,
गायक - जगजीत सिंह
रोशन जमाल-ए-यार से है अन्जुमन तमाम,
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम,
हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोखी से इज़्तराब,
दिल ने भी तेरे सीख लिये हैं चलन तमाम,
अल्लह रे जिस्म-ए-यार की खूबी के ख़ुद-ब-ख़ुद,
रंगीनियों में ड़ूब गया पैरहन तमाम,
देखो तो चश्म-ए-यार की जादूनिगाहियां,
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम,
शिरीनी-ए-नसीम है सोज़-ओ-ग़ुदाज़-ए-मीर,
‘हसरत’ तेरे सुख़न पे है रख़्स-ए-सुख़न तमाम,
ग़ज़ल - अब तो उठ सकता नहीं आंखों से बार-ए-इन्तज़ार
गायक - चित्रा सिंह
अब तो उठ सकता नहीं आंखों से बार-ए-इन्तज़ार,
किस तरह काटे कोई लैल-ओ-नहार-ए-इन्तज़ार,
उन की उल्फ़त का यक़ीं हो उन् के आने की उम्मीद,
हों ये दोनों सूरतें तब है बहार-ए-इन्तज़ार,
मेरी आहें नारासा मेरी दुआऐं नाक़ुबूल,
या इलाही क्या करूं मै शर्मसार-ए-इन्तज़ार,
उन के ख़त की आराज़ू है उन के आमद का ख़याल,
किस क़दर फैला हुआ है कारोबार-ए-इन्तज़ार,
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